सोमवार, 11 जून 2012

राजारूप आचार्य महाराज

श्री जिनशासन में आचार्य का स्थान राजा का होता है। राजा यदि निर्बल बनता है तो प्रजा अपने आप निर्बल हो जाती है। राजा का स्थान भोगना और उसे जाज्वल्यमान करना, उसके गौरव को बढाना, यह आसान नहीं है। राजा के स्थान पर बैठना और उस स्थान को कलंकित करना, यह तो राज्य की बर्बादी का ही रास्ता है। प्रजा की रक्षा, प्रजा का पोषण, प्रजा का विकास, प्रजा का कल्याण राजा की जिम्मेदारी है। विपत्तिकाल के समय जो राजा प्रजा का रक्षण करना भूल जाता है और स्वयं की रक्षा में लग जाता है, वह राजा राज्यपद को लज्जित करने वाला होता है। इसी प्रकार विपत्ति के सिवाय के समय में भी राजा ऊंगे नहीं। केवल भोग-विलास में मस्त नहीं रहे। राजा दुर्जन को दण्ड देने वाला और सज्जन को संरक्षण देने वाला होता है। राजा का प्रभाव तो ऐसा होता है कि दुर्जन को भागते ही रहना पडता है और सज्जन को किसी प्रकार का भय नहीं होता है। राजा के जीवित रहते हुए दुर्जन जो सज्जनों को संताप देने में सफल होता है तो राजा स्वयं के कारोबार-व्यवहार को कलंक लगा, ऐसा मानता है। राजा बनकर बैठना एक बात है और सच्चे राजा बनना, यह दूसरी बात है।
श्री जैन शासन में आचार्य का स्थान राजा का है, इसीलिए आचार्य के सिर पर सर्वाधिक जिम्मेदारी है। राजा-रूप आचार्य सदा साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका इस चतुर्विध संघ की रक्षा, विकास और विस्तार के काम में मस्त रहना चाहिए। चतुर्विध संघ में से कोई भी अंग शिथिल न बने, सड न जाए, ऐसी चिन्ता राजा-रूप आचार्य में होनी ही चाहिए। चतुर्विध संघ रत्नत्रयी की आराधना निर्विघ्न कर सके, इसकी परवाह आचार्य में हो। उसके योग से चतुर्विध श्री संघ रत्नत्रयी की आराधनारूप आबादी में किस रीति से बढोतरी करे, इसकी विचारणा और योजना आचार्य को अवश्य होनी चाहिए। आचार्य की उपस्थिति में आराधक निश्चिन्त होते हैं। वे समझते हैं कि सिर पर स्वामी बैठे हैं तो अपना रक्षण करेंगे ही। आराधक आचार्य महाराज की आज्ञा के प्रति समर्पित बने रहें और राजारूप आचार्य महाराज आराधकों की आराधना में आने वाले विघ्नों को दूर करने में सदैव तत्पर बने रहें, यह जरूरी है। भगवान की आज्ञा के सामने सिर ऊँचा करने वाले तो राजारूप आचार्य का नाम सुनते ही घबरा जाएं। उनको लगे कि ये बैठे हैं तो हमारी शासन-विरोधी गतिविधियां सफल नहीं हो सकती।
इसके विपरीत राजा का स्थान भोगने वाला आचार्य कायर बन जाए,कर्त्तव्य भूल जाए, जिनशासन की साधना-आराधना को भूलकर स्वयं की प्रभावना में पड जाए, पौद्गलिक साधना में पड जाए, शासनहित का नाश करके भी स्वयं की वाहवाही में लग जाए तो वह स्वयं तो डूबता ही है, उसके पाप से धर्मात्माओं को भी दुःखी होना पडता है। वर्तमान में ऐसी स्थिति अधिकांश रूप में चल रही है। इसीलिए सावधान बनने की आवश्यकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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