बुधवार, 6 जून 2012

मरण सुधारने के लिए जीवन सुधारो


मरण निश्चित है, यौवन फूल जैसा है और ऋद्धि चंचल है। इतना जानने के बाद भी मरण आने के पहले साधने योग्य साधन की तरफ बेफिक्र होना, यौवन में भान भूलकर रहना और ऋद्धि का गुलाम बनकर धर्म से परांगमुख बने रहना, इसमें क्या चातुर्य है? कुसुम को कुमलाते हुए कितना समय लगता है? और कुमलाए हुए फूल की कीमत कितनी होती है? यौवनरूप फूल कुमला जाए, उसके पूर्व ही यौवन में मोक्षमार्ग की उत्कृष्ट साधना-आराधना करने के लिए तैयार होना चाहिए। इसी प्रकार ऋद्धि चंचल होने से उसके घमण्ड में न रहकर, संभव हो वहां तक उसका भी अधिक से अधिक सदुपयोग कर लेना चाहिए। यौवन भोग में जाए और ऋद्धि का दुरुपयोग हो, तो मरण सुधरता है या बिगडता है? बिगडता ही है। अधिकांशतः ऐसा ही होता है।

इसलिए मरण को सुधारना हो तो जीवन को सुधारो। ऐसा न हो कि जीवन के अंत में पश्चाताप करना पडे कि मरण निश्चित है, यौवन फूल के जैसा है और ऋद्धि चंचल है, यह जानने के बाद भी मैंने प्रमादवश धर्म नहीं किया और विषयों के अधीन बनकर, प्रमाद में पडकर मैंने यह जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया।हालांकि जीवन व्यर्थ गंवाने वालों में भी पुण्यात्माओं को ही मरण के समय ऐसा विचार आता है। अंतिम क्षणों में भी ऐसे विचारों से कर्मों की कुछ निर्जरा होती है, कर्मबंध ढीले पडते हैं, लेकिन घर में आग लगी हो, तब कुआं खोदने की शुरुआत होती है क्या? सांप के डंक मारने के बाद मंत्र-जाप का अवसर होता है क्या? ऐसे विचार आने पर भी गति पूरी तरह सुधर जाएगी, ऐसा नहीं समझना चाहिए। इसलिए मरण सुधारने के लिए जीवन सुधारना ही श्रेयस्कर है।

फिर भी मृत्यु कब और किस अवस्था में आएगी यह अनिश्चित है, उन क्षणों में सामान्य चिन्तन का अवसर भी मिलेगा या नहीं, यह विचारणीय है। यदि मृत्यु पूर्व चिन्तन का जरा भी अवसर मिलता है तो विचार करें कि मैं मरण अवस्था में पडा हूं, जीवन का संदेह स्पष्ट दिखता है। इस समय कुछ विशेष धर्म करने का समय नहीं है, मैं कितना पामर और अधम हूं कि मुझे वीतरागी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्रणीत जैन धर्म मिला और मैं आत्म-कल्याण के लिए कुछ कर नहीं पाया, मैं अपने किए गए पापों का गहन पश्चाताप करता हूं और श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, साधु भगवंतों को नमस्कार करता हूं। मैं श्री अरिहंत, श्री सिद्ध, श्री साधु भगवंतों और श्री केवली भगवन्तों द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण ग्रहण करता हूं। ये चार शरण ही मंगलभूत हैं।इस प्रकार श्री नवपद की आराधना में आत्मा को लीन बनाओ। श्री नवपद की आराधना करने वाले का कल्याण न हो, यह अशक्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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