विश्व के सभी तत्त्वज्ञ
पुरुषों ने एक स्वर से जिस जीवन का जो महत्त्व स्वीकार किया है और संसार के समक्ष, जीवन के जिस महत्त्व
का अत्यंत उत्साह से गुणगान किया है, उस दुर्लभ मानव-जीवन
की प्राप्ति तो हमें हो चुकी है। फिर भी हम यदि ऐसे सुर-दुर्लभ मानव जीवन को
सार्थक नहीं बना सके तो उस प्राप्त वस्तु को, जीवन के महत्त्व को
हम समझ ही नहीं पाए, यही कहा जाएगा। ज्ञानी पुरुषों ने जीवन की जो महिमा
बतलाई है, वह यदि निष्फल चली जाए तो यह उचित नहीं कहा जा सकता
है। ऐसे महत्त्व का यह हमारा जीवन सार्थक कैसे हो, उस पर हम तनिक विचार
करना चाहते हैं। जो जन्म लेता है, वह अवश्य ही मरता है। संसार के सभी प्राणियों के लिए
जन्म लेना और मरना, जन्म-मरण की दृष्टि से समान ही है।
जरा चिंतन करिए कि
पशु जीवन की तुलना में मानव जीवन को उच्च मानकर उसकी प्रशंसा की जा रही है तो इसका
कारण क्या है? पशु भी मानव की ही तरह शक्ति, सामग्री आदि के
अनुसार खाता है, पीता है, धूप लगने पर छाँया
में जाता है, भोग भोगता है और अपनी संतान का पालन करता है। यदि इन
कार्यों में ही मानव जीवन पूरा होता है तो पशु और मानव में क्या फर्क रह जाता है? अपना जीवन भी यदि
इसी तरह से व्यतीत हो जाए, तो यह हमारे लिए अत्यंत ही लज्जाजनक होगा। हमें इतनी
उत्तम सामग्री युक्त जीवन प्राप्त हुआ है, अतः यह जीवन सफल
कैसे हो, इसका प्रत्येक आत्मा को विचार अवश्य करना चाहिए। यदि
हमें इस बात का सोच न हो तो कहना पडेगा कि ‘हम इस दुर्लभ मानव
जीवन का मूल्य समझ ही नहीं सके।’
यह जीवन केवल
खाने-पीने और मौज-शौक में व्यतीत करने के लिए नहीं है। यदि हम इस बहुमूल्य जीवन को
राग-रंग एवं बाह्य सुखों में ही नष्ट कर दें तो समझिए यह नर-भव व्यर्थ गया। विश्व
में जहां-तहां मानव के कर्तव्य के संबंध में विचार किया जाता है, लेकिन पशु के कर्तव्य
अथवा देव-कर्तव्य के संबंध में कोई विचार करता है क्या? यह बात प्रत्येक के
लिए विचारणीय है। आज जो हमारी प्रवृत्तियां चल रही हैं, उनसे सर्वथा भिन्न
प्रवृत्तियें मनुष्यों की होनी चाहिए; ऐसा विश्व के परम
अनुभवी, समर्थ, ज्ञानी और संसार के
प्राणियों के सच्चे हितैषी महापुरुषों का कथन है। कदाचित यह कथन अनेक व्यक्तियों
को विचित्र भी लग सकता है, क्योंकि संसार की तुच्छ वस्तुओं में सब इतने तल्लीन
हो गए हैं कि उन्हें इनके अतिरिक्त अन्य विषयों पर सोचने का अवकाश तक नहीं है।
इससे सिद्ध होता है कि ‘मनुष्य को उच्च कोटि का बनने के लिए किसी भिन्न
कार्यवाही की आवश्यकता है।’ सच्चा मानव वही है जो बिना सोचे-समझे एक कदम भी आगे
नहीं बढे। ‘मेरी अपनी क्रिया और प्रवृत्ति से दूसरों को हानि कदापि नहीं पहुंचनी चाहिए’, यह मानव जीवन का मूल
सूत्र होना चाहिए। इसके लिए विवेक पूर्ण जीवन जीना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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