सर्व प्रथम यह
निश्चय कर लेना चाहिए कि जिस मानवता की आवश्यकता है, वह हम में आ गई या
नहीं? मानवता आ जाए तो दूसरे गुण लाने में अधिक परिश्रम नहीं करना पडेगा। जमीन योग्य
होगी तो बीज और पानी मिलने से खेती पक जाएगी। उसी तरह एक मानवता का गुण आ जाए तो
अन्य गुण बिना बुलाए, परिश्रम किए बिना और प्रयत्न किए बिना भी आ जाएंगे; क्योंकि जिसमें
मानवता प्रकट हो गई, वह अपने और दूसरों के हित के लिए प्रयत्न अवश्य
करेगा। अतः सर्व प्रथम यह विचार दृढता पूर्वक और किसी प्रकार की शंका के बिना हो
जाना चाहिए कि ‘मनुष्य-भव पाई हुई आत्मा को क्या करना चाहिए?’
मनुष्य परमार्थी
नहीं होगा तो चलेगा, पर मात्र स्वार्थी नहीं चलेगा। उच्च कोटि की नीति से
चलने वाला नहीं होगा तो निभ जाएगा, परन्तु अनीति की
भावना वाला तो निभ ही नहीं सकेगा। उपकार न करे, यह तो अलग बात है, पर अपकार की वृत्ति
तो उसमें नहीं ही होनी चाहिए। नित्य प्रातः उठकर आत्मा को पूछिए कि ‘मैंने क्या किया? करने योग्य क्या है? झूठे आडम्बर के लिए, बडप्पन बताने के लिए
मैंने कितना किया और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए मैंने कितना किया? मुझे मौत कभी भी, कहीं भी आ सकती है।
मैं कौन हूं, यह देह या आत्मा? यहां से मरकर मैं
कहां जाऊंगा?’ यह चिन्तन करते समय अपने अहंकार को दूर रखें और पूरे
विवेक, विनम्रता, सरलता से आत्मालोचन
करें।
चोर भी अपनी जाति
साहूकार ही लिखवाता है। अतः अपनी स्थिति जिस स्वरूप में हो, उसी स्वरूप में
पहचाननी चाहिए, यह पहला गुण है। यह गुण आएगा तो ही शरीर की सेवा पर, बाह्य दृष्टि पर, जड पदार्थों के
आकर्षण और मोह पर अंकुश लगेगा। जीवन भर शरीर की चाकरी कर-करके मोक्ष मिलेगा, ऐसा मानते हैं क्या? बडे-बडे
ऋषि-महर्षियों ने, ज्ञानियों ने तपस्या की क्या वह उनकी अज्ञानता थी? क्या तप-जप की बातें
निरर्थक है? नहीं, निरर्थक तो कतई नहीं
है।
आज धर्म जैसी अमूल्य
और जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी महत्वपूर्ण वस्तु मिटती-सिमटती जा रही है। धर्म
के विचार गृहस्थों के परिवार में से नष्ट होते जा रहे हैं। धर्म के विचार और धर्म
की भावना दिन-प्रतिदिन लुप्त होती जा रही है, क्योंकि उत्तम
मान्यताएं नष्ट होती जा रही हैं। परन्तु, किसी भी तरह इन्हें
जागृत करना ही होगा, अन्यथा इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होंगे। वास्तविक
धर्म-भावना तब जगेगी, जब मनुष्य अपनी आत्मा के हित-अहित का विचार करने वाले
बनें। जिस मनुष्य के जीवन में आत्मा के हित-अहित का विचार नहीं है, वह सच्ची
आत्म-शुद्धि कर ही नहीं सकता और आत्म-शुद्धि किए बिना अमूल्य मानव जीवन की
प्राप्ति निस्संदेह ‘राख में घी मिलाने’ के समान ही सिद्ध
होगी।-सूरिरामचन्द्र
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