विश्व के समस्त
प्राणी केवल सुख चाहते हैं। दुःख विश्व में किसी भी प्राणी को इष्ट नहीं है।
छोटे-बडे सभी जीव सुख ही प्राप्त करना चाहते हैं। ज्ञानी फरमाते हैं कि ‘जगत के जीव दुःखी
हैं’, उसका अर्थ यह नहीं है कि वे सुख की इच्छा नहीं करते। ज्ञानियों ने फरमाया है
कि ‘विश्व के प्राणी दुःखी हैं, फिर भी चाहते सुख ही हैं।’ यदि सुख की इच्छा न
होती तो विश्व में किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति न होती। चौबीसों घण्टों की
प्रवृत्ति सुख के लिए ही है। मन की भावना भी सुख प्राप्ति की है, बातें भी सुख
प्राप्ति के लिए ही होती हैं और विश्व के समस्त प्राणियों की दौडधूप भी सुख
प्राप्ति के लिए ही हो रही है।
जिस क्रिया में मन, वचन और काया तीनों
एक हो जाते हैं, वह कार्य अवश्य सिद्ध होता है। यह सिद्धान्त मिथ्या
नहीं है। परन्तु ध्यान यह रखना है कि मन, वचन और काया एक होने
पर भी सिद्धि तो तभी प्राप्त होगी, जब वह एकात्मता
कार्य-साधक दिशा में हुई हो। यदि मन-वचन-काया की एकात्मता कार्य-विघातक दिशा में
हुई हो तो परिणाम धारणा के विपरीत ही होगा, यह स्वाभाविक है।
सुख के लिए मन, वचन और काया का मत
समान है फिर भी विश्व में हम देखते हैं कि इच्छा होते हुए भी वह सुख किसी को भी
प्राप्त नहीं होता। उसका कारण क्या है, इसकी गवेषणा होनी
चाहिए कि नहीं? यदि कार्य सिद्ध न हो तो यह अवश्य मानना पडेगा कि ‘साधन का अभाव रहा।’ सभी साधन प्राप्त
हों और कार्य सिद्ध न हो, यह हो ही नहीं सकता। इसलिए विचारणीय है कि कमी कहां
रही? संसार ने सुख की कल्पना किस वस्तु में की? किसी ने किसी एक
पदार्थ की प्राप्ति में सुख की कल्पना की तो किसी ने दूसरे पदार्थ की प्राप्ति में
सुख की कल्पना की। ये सब पदार्थ कैसे हैं? ये सब अनित्य, अस्थिर और अपने नहीं
हैं, ऐसे हैं। ऐसे पदार्थों से सुख की आशा करेंगे तो सफलता कैसे मिलेगी?
संसार के नाशवान
पदार्थों के योग से सच्चा सुख कभी संभव ही नहीं है। अतः सुख और दुःख का वास्तविक
कारण ढूंढते समय ज्ञानियों ने समस्त शास्त्रों का मंथन कर एक ही निष्कर्ष निकाला
है कि ‘दुःखं पापात् - सुखं धर्मात्’, पाप से दुःख और धर्म से सुख मिलता है। इसमें कोई
मतभेद नहीं है। इसलिए धर्म का वास्तविक स्वरूप और पाप के वास्तविक कारणों को समझना
जरूरी है। जिस देश में धर्म के संस्कार नहीं, उत्तम विचार करने के
साधनों का अभाव है, उस देश में उत्पन्न लोग यदि यों ही मर जाएं तो-तो वे
क्षम्य हैं, लेकिन हमारे इस आर्य देश में तो महापुरुषों ने
प्रत्येक वस्तु पर सम्पूर्ण एवं हृदयंगम प्रकाश डालने वाले लाखों ग्रन्थ लिखे और
करोडों श्लोकों की रचना की है। यहां बिना सुख प्राप्त किए मरने वालों के लिए तो
यही कहा जा सकता है कि ‘अनाज होते हुए भी अकाल हो गया’।
कोई यदि पूछे कि ‘जो सुख आप चाहते हैं, उसके साधनों की
प्राप्ति के लिए चौबीस घण्टों में से आप कितने घण्टे विचार करते हैं?’ तो आपके पास इसका
क्या उत्तर है? आज तो बारह घण्टे के दिन में चौदह घण्टे तक आरम्भ का
प्रमाद (व्यापार-धंधा आदि) और बारह घण्टे की रात में सोलह घण्टे तक नींद का प्रमाद
होता है। ऐसे जागृति के युग में सुख का विचार करने के लिए घण्टों का समय कहां से
लगाएं? ऐसा कहने वाले भी मिलते हैं। घण्टे तो क्या मिनट भी
नहीं हैं। फिर सच्चे सुख की आशा कहां से की जा सकती है?
‘आपने जिन्हें सुख के
साधन माना है और जिनकी प्राप्ति आदि के प्रयत्न में आप उलझे हुए हैं, उनमें सुख देने की
और वह भी आप हृदय से चाहते हैं, वैसा दुःख-रहित, पूर्ण और स्थाई सुख
देने की शक्ति है या नहीं, इतना तो सोचिए!’ आप रात-दिन परिश्रम
कर रहे हैं, यह तो स्पष्ट दिख रहा है, तो फिर यह सब
परिश्रम आप बिना सोचे-समझे ही कर रहे हैं क्या? कितनी विचित्र दशा
है? नित्य आप कितने घण्टे कार्य करते हैं? जन्म-भूमि, गांव, नगर, देश, जाति, परिवार, स्नेही, संबंधी सबको छोडकर
आप कहां-कहां नहीं भटकते? यह सब आप सुख-प्राप्ति के लिए ही कर रहे हैं न? वर्षों से कार्य कर
रहे हैं; तो भी आप सीने पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि ‘आपको शान्ति है क्या?’
यदि शान्ति नहीं है
तो फिर हमें ज्ञानियों द्वारा दिखाए गए साधनों के विषय में विचार करना चाहिए। हम
साधुओं ने भी आपकी तरह ही जन्म-भूमि, गांव, नगर, देश, जाति, परिवार, स्नेही, संबंधी सबको छोडा है, वाहनों में बैठना
नहीं, पैदल चलना आदि; लेकिन दुःखी होने के लिए नहीं, सुखी होने के लिए।
आपका रास्ता सही है या हमारा रास्ता? आपने किसी अन्य
प्रवृत्ति में सुख देखा हो तो बता दीजिए, तो हम लौट चलें, वर्ना आप लौटिए! दो बातों
में से एक बात करिए! या तो हमारी दिशा बदलिए या आप अपनी दिशा को बदलिए! आप इतने
वर्षों से लगे हुए हैं, फिर भी आपको शान्ति नहीं है, तो फिर हम कहेंगे कि
‘हमने अपनी बुद्धि का सही उपयोग किया है। हमने संसार छोडकर बुद्धिमानी की है।’ संसार का त्याग नहीं
करने वालों ने कोई लाभ नहीं उठाया, यदि यह निर्णय हो
जाता है तो हमने जो किया वह योग्य है, फिर उसका विश्व भर
में प्रचार होना चाहिए, इसमें कोई दोष नहीं है। साधुपन का क्या अर्थ है? मेरा-तेरा का त्याग
करके संसार-त्यागी बनकर केवल आत्म-कल्याण के विचार आदि में लीन रहना ही साधुपन है।
आप जिन संयोगों में, जिन कार्यों में और जिन प्रवृत्तियों में प्रवृत्त
हैं, उनमें सुख नहीं है, यह मैं कहता हूं, क्योंकि शास्त्र भी
यही फरमाते हैं कि कोई सुखी नहीं है, सभी दुःखी हैं।
संसार त्याज्य है और अनंतज्ञानियों के आदेशानुसार संयम की साधना में प्रवृत्त होना
ही हितकर है।-सूरिरामचन्द्र
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