हैदराबाद में 68 दिन के
उपवास की तपस्या सम्पन्न करने के दो दिन बाद हुए 13 वर्ष की बालिका के देहावसान में उसकी तपस्या का या जैन धर्म का कोई दोष नहीं है।
लोग उस बालिका आराधना के देहावसान की घटना को लेकर नाहक ही जैन धर्म अथवा तपश्चर्या
को बदनाम करने पर आमादा हैं। दरअसल इतनी छोटी वय में इतनी अद्भुत् तपश्चर्या से लोग
आश्चर्य विस्मित होकर पगला से गए थे और उसके साथ "सेल्फी" लेने, उसके साथ अपना "फोटो खिंचवाने", उसकी प्रशंसा-अनुमोदना की होड़ाहोड़ में यह विवेक भी भूल गए थे
कि इतनी लम्बी तपश्चर्या के बाद उस मासूम को पारणे के साथ ही आराम व कई प्रकार के परहेजों
की जरूरत थी। माता-पिता व उस बच्ची के ईर्द-गिर्द रहनेवाले लोग भी ऐसे लोगों को भावकुतावश
रोक नहीं पाए और इसी में उस बच्ची को इन्फेक्शन हो गया, काफी थकान हो गई और यह सारा माहौल उसके लिए जानलेवा साबित हुआ। यहां जुनून और अतिभावुकता
की नहीं, बहुत संयम की जरूरत थी। अब इसमें
धर्म को दोषी ठहराना या तपश्चर्या को इसके लिए जिम्मेदार मानना निहायत ही मूर्खतापूर्ण
है, क्योंकि कई तपस्वी इससे भी बडी
तपस्याएं करते हैं और स्वस्थ रहते हैं, धर्म की भव्य प्रभावना करते हैं।
कई लोग जो इसे धार्मिक-हत्या और आत्महत्या कह रहे हैं, उनका सोच बिलकुल गलत है, हत्या
और आत्महत्या में आर्तध्यान-रौद्रध्यान होता है, भयंकर क्रोध-कषाय होता है, जबकि
इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है।
तपस्वी बालिका आराधना की तपश्चर्या के साथ कई प्रकार की भौतिक महत्वाकांक्षाओं
की कहानियां जोडी जा रही है और उसके माता-पिता के खिलाफ कुछ तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओं, जिन्हें जैनधर्म की पूरी समझ भी नहीं है, उनके दबाव में पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया है जो बिलकुल ही गलत
है, क्योंकि यह हरकोई जानता है कि
जैनधर्म में तपस्या भौतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए नहीं, बल्कि आत्मकल्याण के लिए की जाती है। मुझे नहीं मालूम कि वो बालिका किस समुदाय
की है या उसके धर्मगुरु कौन हैं, लेकिन
इस मुद्दे पर सभी सम्प्रदायों को अपने छोटे-मोटे मतभेदों को अलग रखकर एकजुट होना चाहिए, क्योंकि यह धर्म के मूल सिद्धान्तों पर आघात है।
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