ज्ञानियों ने
मनुष्यत्व दुर्लभ बताया है और मानव जीवन को अन्य भवों के जीवन से श्रेष्ठ बताया है, लेकिन किस दृष्टि से
ऐसा कहा है, यह विशेष रूप से विचारने योग्य है। आकृति से तो
मनुष्य अनेक हैं, परन्तु मनुष्यत्व वाले मनुष्य बहुत थोडे हैं। इसीलिए
कहा है, ‘मनख-मनख में आंतरो, कोई हीरो तो कोई
कांकरो’। मनुष्य वही है, जिसमें मनुष्यता हो; जिसमें मनुष्यत्व
नहीं, वह तो चोट करने वाले कंकर-पत्थर के समान है। आज ऐसे मनुष्यों की ही अधिकता है, जिनमें मनुष्यता का
नितांत अभाव है, जो एक हिंसक पशु से भी बदतर हैं। अतः आत्म-शुद्धि का
पहला उपाय है मनुष्य में मनुष्यत्व उत्पन्न करना। यदि मनुष्यत्व आ गया तो शेष सभी
उपाय सरलता से आ जाएंगे। इस मनुष्यत्व के अभाव को ही पहले दूर करना है।
मनुष्य से तात्पर्य
है सब प्राणियों में उच्च कोटि की आत्मा। उससे संसार कैसी उम्मीद, कैसी आशा-अपेक्षा
करता है? घर के स्वामी से परिवार के सदस्य क्या इच्छा करेंगे? क्या चाहेंगे? ‘जो हमारे पास हो वह
छीन ले और अपने पास से कुछ भी देने का नाम नहीं, हम से सेवा कराए और
अवसर आने पर हमारा ध्यान भी न रखे’, क्या आश्रितों की
ऐसी इच्छा-अपेक्षा-उम्मीद होती है? नहीं होती। इसी तरह
मनुष्य सबसे ऊंची आत्मा है। उससे छोटी-छोटी आत्माएं क्या अपेक्षा करेंगी? अपनी रक्षा चाहेंगी
या अपना नाश? रक्षा चाहेंगी। लेकिन, रक्षा कौन कर सकता
है- स्वार्थी या परमार्थी? जहां मनुष्यता नहीं होगी, वहां परमार्थ-वृत्ति
आएगी क्या? केवल आकृति से मनुष्य हों, उनसे संसार की भलाई
हो जाती तो ज्ञानी पुरुष मनुष्यता को इतना महत्त्व नहीं देते, उसका इतना मूल्य
नहीं आंकते।
ऐसे मनुष्य भी हैं, जिन्हें पशुओं की
उपमा दी जाती है। ऐसे मनुष्य भी हैं, जिन्हें देखते ही घृणा
होती है। ऐसे मनुष्यों को कौन याद करता है? कौन ऐसे मनुष्यों को
अपने पास बिठाना, उनसे व्यवहार रखना पसंद करता है? उन्हें देखकर तो
हमारे मन में होता है कि इनसे वास्ता न पडे तो ही अच्छा है, इनसे जितना बचा जाए, जितनी दूरी रहे उतना
ही अच्छा है। मनुष्य तो अनेक जन्मते हैं और मरते हैं। कहीं मनुष्यों का अभाव होने
वाला नहीं है। मनुष्य को जो श्रेष्ठ कहा जाता है, वह उसकी मनुष्यता के
लिए। उत्तम सामग्री से युक्त प्राप्त किए हुए मानव-जीवन से आत्मा यदि चाहे तो अपने
साथ-साथ शत्रु का भी कल्याण कर सकती है; लेकिन जो मित्र की
भी भलाई नहीं कर सके, और तो और जो स्वयं के साथ छलावा करे, अपना आत्म-कल्याण
करने को तत्पर न हो सके, वह शत्रु की भलाई, शत्रु का कल्याण
क्या करेगा? जो केवल बाह्य पदार्थों में लीन है, वह स्वयं की भी और
दूसरों की भी भलाई नहीं कर सकता। देह की सेवा में मग्न और आत्मा को भूले हुए लोग
मानव-भव पाकर भी संसार को लाभदायक होने के बजाय अभिशाप सिद्ध होते हैं।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें