हमारी नीति पर-घातक और
स्वार्थ-साधक नहीं होनी चाहिए, बल्कि अपना और दूसरों का कल्याण करने वाली होनी
चाहिए। स्व-पर कल्याणकारी नीति को सुदृढ करने के लिए पापभीरु बनकर, पाप से बचने के लिए
सर्वस्व का त्यागी बनना पडेगा। यदि सर्वस्व त्याग करने का सामर्थ्य न हो तो
यथाशक्ति त्यागी तो बनना ही चाहिए और हृदय में पाप त्यागने की सुदृढ भावना तो होनी
ही चाहिए। पाप-भीरु आत्मा को अनीति करते समय सैंकडों विचार आएंगे। कहीं उससे अनीति
न हो जाए, अतः वह सावधान रहेगा। पाप का भय हमारे रोम-रोम में
बसना चाहिए। नीति पर चलने वाला मनुष्य पाप से अवश्य पीछे हटेगा। पाप नीति का
विनाशक है।
पर्व आदि के अवसर पर
पहनने की बहुमूल्य पगडी जब आप पहनकर जा रहे हों और आसपास में कीचड ही कीचड हो। उस
समय यदि पीछे से कोई आवाज लगाए कि ‘आपकी पगडी में सांप
है’, तो उस समय में आप क्या करेंगे? आप तुरंत पगडी उतार
कर फेंक देंगे, क्योंकि ‘सांप तो प्राणघातक
जन्तु होता है’, यह आप जानते हैं। पगडी उतारकर फेंकते समय आपको उस
कीचड का ध्यान आएगा क्या? नहीं आएगा। उलटा आप घर पहुंचकर सोचेंगे कि ‘पगडी बिगडने की कोई
चिन्ता नहीं, मैं जीवित घर पहुंच गया, यही काफी है। जान
बची, लाखों पाए।’
आपको सांप के जितना
भी पाप का भय हो तो हिंसा बढेगी या कम होगी? पाप का भय होगा तो
झूठ, चोरी, व्यभिचार, और लोभ बढेंगे या कम
होंगे? आज अनेक व्यक्तियों का जीवन ऐसा हो गया है कि वे बात-बात
में झूठ बोलते हैं और थोडे-थोडे में चोरी करते हैं। कारण क्या? कारण यही है कि पाप
का भय नहीं रहा। महर्षियों ने फरमाया है कि ‘दूसरों को कष्ट से
बचाने के लिए हमें सबकुछ सहन करना चाहिए। दूसरे की आत्मा को कष्ट देने से अपनी
आत्मा को शान्ति मिलेगी, ऐसी स्वप्न में भी आशा नहीं रखनी चाहिए।’ फिर भी आपको जितना
सांप और काँटे का भय है, उतना भी पाप का भय नहीं है। कांटा यदि पांव में घुस
गया हो तो उससे भी तेज सुई से उसे निकालते हैं, कांटा निकलने पर उस
स्थान को दबाकर उसमें से खून बाहर निकालते हैं। ऐसा क्यों करते हैं? कांटा हम पांव में
रहने क्यों नहीं देते? कारण स्पष्ट है कि यदि कांटा भीतर रह जाए तो वह भाग
सडने लगता है, शरीर बिगड जाता है और हम मर जाते हैं। इसी तरह कोई
व्याधि होने पर तुरंत चिकित्सक के पास दौडकर जाते हैं। शरीर के लिए कितनी सावधानी
रखते हैं? पाप से बचने के लिए इतनी सावधानी रखते हैं क्या? सांप अधिक परेशान
करता है या पाप? पाप तो सांप से कई गुनी परेशानी करने वाला है। सांप
का विष चढने से मृत्यु हो जाए तो इस भव का ही नाश होता है, जबकि भयंकर पाप तो
अनेक भवों तक आत्मा को कष्ट देते रहते हैं। पाप का भय तो गुणों का मूल है।-सूरिरामचन्द्र
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