शरीर-शुद्धि के सभी
उपाय चल रहे हैं- स्नान करते हैं, मुँह साफ करते हैं, स्वच्छ व सुन्दर
वस्त्र पहनते हैं और तेल लगाते हैं, यह कैसी शुद्धि है? यह सब तो
बाह्य-शुद्धि है। शरीर गंदा हो, वस्त्र गंदे हों अथवा वस्त्र व्यवस्थित ढंग से पहने
हुए न हों तो आप बाहर जा सकते हैं क्या? लोग क्या कहेंगे, इसकी चिन्ता होगी।
बाह्य-शुद्धि की इतनी चिन्ता है और अन्तर-शुद्धि की बिलकुल नहीं? यदि आप हिंसक होंगे, क्रोधी होंगे, अहंकारी होंगे, मायावी होंगे, लालची होंगे तो क्या
दुनिया कुछ नहीं कहेगी? उस पर आप पर्दा डालकर रखेंगे? यानी कि आप और
ज्यादा खतरनाक, और ज्यादा भयंकर होंगे? इसीलिए आपको
अन्तर्हृदय, अन्तर्मन की चिन्ता नहीं है, बाहरी दिखावे की ही
चिन्ता है? बाहर जाएं तब ढंग अच्छा होना चाहिए, बस! इस प्रकार जो
लोग केवल बाह्य-शुद्धि में ही अपना कल्याण मानकर बाहर से सुन्दर दिखें और अन्तर
में मलिन हों, वे आत्म-शुद्धि, आत्म-कल्याण कर
सकेंगे क्या? कदापि नहीं।
संसार की दृष्टि आज
केवल बाह्य दिखावे पर जमी हुई है, जिसे हमें भिन्न मार्ग पर मोड़ना है। लेकिन, किसी को दानी बनाने
से पूर्व उसमें से दूसरों का छीन लेने की वृत्ति नष्ट करनी होगी। ज्ञानी फरमाते
हैं कि चाहे कोई दाता देरी से बने, पर पराया माल छीनने
की वृत्ति तो पहले से ही निकल जानी चाहिए, क्योंकि जो दानी
नहीं बना है, वह अधिक हानि नहीं पहुंचाएगा; केवल उसके दान से जो
लाभ होना है, वही नहीं होगा, परन्तु जिस व्यक्ति में लूटने की वृत्ति है, वह तो दूसरों को भी
हानि ही पहुंचाएगा। मनुष्य यदि दानी नहीं होगा तो चलेगा, यदि वह त्याग नहीं
कर सकता हो तो भी निभेगा, परन्तु उसमें अवगुण घुस गए हैं, उनका क्या होगा?
जो लोग आत्मा को
भूलकर शरीर की चिन्ता में ही लीन हैं और जिन्हें स्वप्न में भी कभी यह विचार नहीं
आता कि ‘मेरा क्या होगा?’ उनका उद्धार करने का कोई मार्ग है क्या? अपनी देह की सेवा
में मग्न और आत्मा को भूले हुए लोग मानव-भव जैसा उच्च स्थान पाकर भी संसार को
लाभदायक होने के बदले अभिशाप सिद्ध होते हैं। शक्तिहीन के बनिस्पत शक्तिशाली
व्यक्ति यदि अपनी शक्ति का उचित उपयोग न करे तो वह अधिक भयंकर सिद्ध होता है। ऐसा
व्यक्ति यदि अपनी शक्ति को सन्मार्ग की ओर नहीं मोडे तो वह अपने और संसार के लिए भी
भयंकर सिद्ध होगा, यह स्वाभाविक है। जिसके ज्ञान में त्याग नहीं, जिस ज्ञानी में
त्याग-भावना नहीं, वैसा ज्ञानी अज्ञानी से ज्यादा भयंकर होता है। जब
शक्ति आ जाएगी तो वह काम तो करेगी ही, शक्ति काम किए बिना
नहीं रहेगी; अतः उससे योग्य काम लेने का प्रयत्न नहीं किया तो वह
अनुचित कार्य तो अवश्य करेगी ही। हमें मानव जीवन रूपी सर्वोत्तम वस्तु मिली है, अतः हम पुण्यशाली तो
हैं ही। हमें शक्ति और सामग्री दोनों मिल गई हैं। अब हमें यह सोचना है कि हम भयंकर
बनना चाहते हैं या मनोहर? -सूरिरामचन्द्र
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