रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) की सर्वश्रेष्ठ आराधना करने
के लिए ज्ञानियों ने संसार-त्याग पूर्वक संयम पालन का उपदेश दिया है। संसार में रहकर
आत्मा रत्नत्रयी की आराधना नहीं कर सकती है। संसारी लोगों का जीवन पाप से सर्वथा
मुक्त व सिर्फ रत्नत्रयी की आराधनामय होना संभव नहीं है। अतः इसके लिए साधु जीवन
ही सर्वश्रेष्ठ जीवन है। आत्म-कल्याण के लिए इच्छुक विवेकी आत्मा साधु जीवन को न
चाहे या अनुमोदन न करे, यह संभव नहीं है, क्योंकि आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय
साधु जीवन ही है। इसलिए शक्य हो तो साधु जीवन ही स्वीकार करना चाहिए, परन्तु इतनी उच्च भूमिका तक पहुंचना जिनके लिए अभी संभव न
हो, उन्हें संसार में रहते हुए भी रत्नत्रयी की शक्य आराधना
करनी चाहिए। साधु के लिए हिंसा-विरमण आदि महाव्रत हैं तो गृहस्थों के लिए स्थूल
प्राणातिपात विरमण आदि अणुव्रत हैं। महाव्रतों के लिए जो असमर्थ हों वे
अणुव्रतधारी बनें। अणुव्रतों के पालन में वह इस प्रकार प्रयत्नशील बने कि जिसके
प्रभाव से निकट भविष्य में महाव्रतों की प्राप्ति सुगम हो जाए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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