दुनिया के दुःख नहीं चाहिए, यह बात सत्य है और सुख चाहिए, यह बात भी सत्य है। फिर भी दुनिया के जीव सुख की इच्छा से ऐसा प्रयत्न करते
हैं कि जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें दुःखमय दशा प्राप्त हो जाती है। कारण कि उन्हें
सच्चे सुख का ज्ञान ही नहीं है। उनको सच्चे सुख के उपाय की जानकारी ही नहीं है।
दुःख के स्वरूप और दुःख के निदान की भी खबर नहीं है। सुख और दुःख दोनों का स्वरूप
समझ लें और उसके निदान का खयाल आ जाए तो ज्ञानी कहते हैं कि ‘आत्मा को ऐसा लगे कि संसार रूपी भट्टी में मैं सिका जा रहा
हूं’। उसको चैन नहीं पडेगा। दुनिया जिसको सुख मानकर पागल
के समान जिसके पीछे दौड रही है, वह सुख उसको भयंकर लगता है।
यह भौतिक सुख कैसे अनर्थों का सर्जक है,
यह बात जिसे समझ में आ
जाए, उसकी दिशा ही बदल जाएगी। एक भी पौद्गलिक वस्तु के
योग के बिना का जो सुख है, वही सच्चा सुख है। दुःखमात्र
का मूल पुद्गल का योग है। जहां पुद्गल का योग नहीं, वहां दुःख का नाम नहीं और सुख की कमी नहीं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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