शुक्रवार, 22 मार्च 2013

झूठी निन्दा से धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता


कल्याणकामी आत्माओं को दोषितों के संसर्ग से बचाने और सच्चे गुणवानों के संसर्ग में स्थापित करने की कामना धर्मदेशक में होनी चाहिए। इसी कारण से दोषितों को लक्ष्य करके होने वाले दोषों का वर्णन करना, यह जैसे निन्दा नहीं है, उसी प्रकार सच्चे गुणवानों को अनुलक्ष्य करके किए जाने वाले गुणों का वर्णन, यह मिथ्या प्रशंसा भी नहीं है। धर्मार्थी श्रोताओं को तो खास करके इस बात को भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि धर्म के विरोधियों की तरफ से इस प्रकार से भी भद्रिक आत्माओं को बहकाने का प्रयत्न होता है। यह असंभवित नहीं है।

हम यशोलिप्सा के योग से सन्मार्ग से विमुख बनने वालों का वर्णन करेंगे तो यह निन्दा है। हम तो ऐसी भी आत्माओं के कल्याण की ही कामना करते हैं, यह निर्विवाद बात है। किन्तु, ऐसी आत्माएं स्वयं का अकल्याण साध रही हैं; इस प्रकार समझाकर, उस प्रकार से भी अकल्याण को साधने वाले नहीं बनें, उसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए। विरोधी इसे निन्दा कहें, यह तो स्वाभाविक है। समझ रहित व्यक्तियों को समझाने का हम शक्य प्रयास करें, फिर भी वे न समझें तो उनकी भवितव्यता। सचमुच अज्ञान यह महाकष्ट है। अज्ञान को सज्ञान बनाने का प्रयत्न करना, परन्तु अज्ञानी की बातों से व्यथित नहीं होना है। विरोधियों से प्रेरित होकर अथवा ऐसे-वैसे भी अज्ञानी आत्मा चाहे जितनी टीका या निन्दा करें, इससे धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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