दोषों का नाश हो और गुण प्रकट
हों, यही धर्मदेशना का हेतु हो सकता है। सच्चा धर्मदेशक
इसी ध्येय का अवलंबन लेकर उपदेश देता है। धर्मदेशक के हृदय में दोष-नाश और
गुण-प्राप्ति, इसके अतिरिक्त कामना को स्थान ही नहीं होना चाहिए।
सच्चा धर्मदेशक जीवा-जीवादिक तत्त्वों के स्वरूप का विवेचन करता हो या कथा के
द्वारा उपदेश प्रदान करता हो, किन्तु उसका आशय तो यही होना
चाहिए कि ‘दोष नष्ट हों और आत्मा के गुण प्रकटें’। इसी हेतु से धर्मदेशक जहां दोषों का वर्णन आता है, वहां दोषों की त्याज्यता समझाने के लिए और ये दोष किस-किस
प्रकार से आत्मा को उन्मार्ग का उपासक बना देते हैं, इसका खयाल देने के साथ ही इन दोषों से किस प्रकार बचा जा सकता है, यह समझाने के लिए दोष और दोषित दोनों के स्वरूप आदि वर्णन
करते हैं। इसी प्रकार जहां गुण का वर्णन आता है, वहां भी गुण से होने वाले लाभ और गुणवान आत्माओं की करणी किस प्रकार होनी
चाहिए इत्यादि समझाकर गुणों के प्रति श्रोतागण आदर वाले बनें, इस प्रकार का वर्णन करें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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