धर्म की एक सर्वसाधारण
व्याख्या है कि ‘जो आत्मा की अशान्ति को हटाकर
शान्ति प्रदान करे, उसे धर्म कहते हैं।’ जीवन में अशान्ति पैदा करने वाली परिस्थितियों के बावजूद
जिसके कारण शान्ति का अनुभव किया जा सके और जिसके कारण क्रमशः सम्पूर्ण शान्ति
बिना मांगे मिले, वही धर्म है। जीवन में शान्ति
की कितनी जरूरत है और यह कितनी कीमती है,
इसका पता वास्तव में
तब चलता है, जब अशान्ति के समय आदमी को रास्ता नहीं सूझता है।
जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग, कुछ ऐसे संयोग उपस्थित होते
हैं कि आदमी अपनी सुध-बुध खो बैठता है,
मन पर काबू खो बैठता
है। उस समय उसकी बुद्धि काम नहीं करती। क्या करे, क्या न करे, यह समझ में नहीं आता और उसे
अशान्ति की आग घेर लेती है। ऐसे समय में कितना भी धृष्ट आदमी क्यों न हो, उसे शान्ति का महत्त्व ज्ञात हो ही जाता है। इसी शान्ति को
जो प्राप्त कराए और अशान्ति को दूर करे,
वह धर्म है। जो शान्ति
से जीने दे और शान्ति से मरने दे, वह धर्म है। इतना होने पर भी
दुःख की बात यह है कि इस आर्य देश में जन्म पाए मनुष्य ऐसी चीजों में उलझ गए हैं
कि उन्हें इतने महत्त्व की बात पर सोचने-विचारने की मानो फुरसत ही नहीं हो। वास्तव
में शान्ति और अशान्ति देने वाले कारणों पर तात्त्विक विचारों के आदान-प्रदान की
प्रवृत्ति हमारे यहां लगभग बंद सी हो गई है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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