चौबीस घंटे हम शरीर के धर्मों को विकसित करने का जतन करते रहें,
तो शरीर के मालिक की क्या दशा होगी?
शरीर को एक न एक दिन
मन से या कुमन से अवश्य छोडना ही पडता है। इस स्पष्ट अनुभव को यदि दृष्टि में न
लें तो क्या परिणाम होगा? इस जीवन में यदि हम आत्मा को
न पहचान सके और आत्म-हित के लिए करणीय कार्य न कर सके तो फिर मानव जीवन की जो
महत्ता दार्शनिकों ने आँकी है, वह महत्ता हमारे जीवन में
कैसे सफल होगी? इसलिए शरीर के पोषण का नहीं, आत्मा के पोषण का विचार होना चाहिए। शरीर केवल माध्यम है
आत्माराधना के लिए। इसलिए शरीर को इतनी ही खुराक मिले कि वह हमारी आत्माराधना में
सहायक बन सके। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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