शनिवार, 16 मार्च 2013

धर्मसत्ता ही शरणरूप है


धर्मसत्ता ही शरणरूप है

कर्मसत्ता की स्थिति बिलकुल भिन्न है। मनुष्य विचार कुछ करे और परिणाम कुछ और आए। परिश्रम दुश्मन को मारने का करे और दुर्भाग्य का उदय हो तो स्वयं की योजना में स्वयं ही फंसकर मर जाता है। कर्मसत्ता के इस खेल से इंसान को धर्मसत्ता ही मुक्त बना सकती है और कर्मसत्ता से मुक्त न हो, वहां तक कर्मसत्ता की कृपा टिका सकती है। परन्तु, धर्मसत्ता की शरण भी कर्मसत्ता कुछ कमजोर बने तब ही स्वीकार की जा सकती है। कर्म की लघुता हुए बिना सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

सम्यक्त्व आदि प्राप्त होने पर भी कर्मसत्ता प्रबल होती है तो भोग-त्याग और संयम-साधना में वह अंतरायभूत होती है। कर्मसत्ता की ऐसी प्रबलता पर विचार करो कि जिससे कर्मबंधन की प्रवृत्ति रूक्ष हो जाए और धर्मसत्ता की शरण में रहकर कर्मसत्ता से सर्वथा मुक्त बनने का शक्य प्रयत्न करने के लिए तैयार हो जाए। कर्म के उदय के समय में आत्मा विवेकी बनकर रहता है, तो उदय में आए हुए कर्म जाने के साथ दूसरे भी बहुत से कर्म चले जाते हैं। जो कर्म बांधा वह मानो कि उदय में आया और उसने अच्छी या बुरी सामग्री लाकर रखी, किन्तु उस वक्त आत्मा उसमें लुब्ध होकर गृद्ध नहीं होती, अपितु समभाव से उसको सहन करे तो कर्मसत्ता को भागना ही पडेगा। पुण्ययोग से प्राप्त सामग्री में जो आसक्त नहीं बने, वे बच गए और जो आसक्त बने वे डूब गए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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