गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

परोपकार का अवसर अहोभाग्य


जैन केवल परोपकार की भावना से युक्त होता है, यही नहीं है। उसकी परोपकार की भावना सूखी नहीं होती, केवल बातों तक ही सीमित नहीं होती, अपितु जैन मात्र की वृत्ति उस परोपकार भावना को अपने आचरण में ढालने की होती है। जैन परोपकार करने में आनंद मानता है, उसे परोपकार करने में रुचि होती है। इसलिए तो वह नित्य श्री वीतराग परमात्मा से स्वयं में परोपकार भावना जागृत करने के लिए याचना करता है।

श्री वीतराग परमात्मा के समक्ष प्रार्थना करते समय जैन नित्य यह याचना भी करता है कि हे भगवन! आपके प्रभाव से मुझ में परोपकार प्रियता जागृत हो।’ ‘जय वीयरायसूत्र में आप नित्य परत्थकरणंचबोलते हैं न? यह बोलकर आप नित्य परोपकारी बनने की अपनी कामना ही तो व्यक्त करते हैं न? आप परोपकारी होना चाहते हैं। आपके मन में सदा ऐसा होता रहता है कि मैं कब परोपकारी बनूं? क्या आपने अपना ऐसा स्वभाव बनाया है कि मुझे हर हाल में नित्यप्रति थोडा-बहुत भी उपकार करना ही है?

आपको सुखी, सम्पन्न और भला मनुष्य समझकर यदि कोई आपसे किसी वस्तु की अथवा किसी कार्य को कराने की याचना करे तो उससे आपको हर्ष होना चाहिए। आपको यह लगना चाहिए कि मुझे परोपकार करने का यह उत्तम अवसर प्राप्त हुआ, यह मेरा अहोभाग्य है।’ ‘परोपकार करने के लिए अवसर ढूंढना पडता है, जबकि यह अवसर मुझे स्वतः ही प्राप्त हो गया है, यह मेरा अहोभाग्य है।ऐसी भावना जैन में होनी चाहिए।

परोपकार करने का अवसर प्राप्त होने पर आनंद तो न हो, पर उसे आफत न माने तो भी यथेष्ट है, ऐसी आज कई लोगों की हालत है। सबकी ऐसी हालत नहीं है, परन्तु यदि सचमुच ऐसी हालत हो तो आपके मन में यह बात आनी चाहिए कि हम में भगवान का सेवक कहलाने की योग्यता भी नहीं है।संसार किसी भी तरह जीवन यापन कर रहा हो, पर हमसे तो इस तरह जीवित नहीं रहा जाएगा। आपको यह सोचना चाहिए कि हम किसके सेवक हैं?’ हम उस महापरोपकारी परमात्मा के सेवक हैं। मुझे ऐसे परोपकारी भगवान का सेवक बनने का, कहलाने का सुअवसर मिला यह मेरा अहोभाग्य है। यह सोचकर, यह समझकर यदि आप सेवक कहलाओ तो भी आपका कल्याण हो जाए। इतना ज्ञान हो तो, यदि कोई किसी उचित वस्तु के लिए आपसे याचना करे और उसे यदि उस समय आप इनकार करें तो जीभ कटने जैसा होगा। परोपकार करने योग्य सामग्री और अवसर उपलब्ध होते हुए भी यदि हमसे परोपकार न हो सके तो लगेगा कि इस तरह परोपकार न करने में तो मेरी वीतराग परमात्मा की सेवा लज्जित होती है, मेरा जैनत्व कलंकित होता है।-आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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