शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

परोपकार रसिक बनें


भगवान श्री महावीर स्वामी तो सर्वज्ञ बनने से पूर्व कनखल आश्रम की ओर प्राणघातक विपत्ति में भी चण्डकौशिक का उपकार करने के लिए गए, क्योंकि उनमें उपकार करने की प्रबल भावना थी। उनका वह अंतिम भव था, मोक्ष निश्चित था, तो भी उन्हें अपने परोपकार गुण की परवाह थी; तो फिर आपको और मुझे यह गुण नहीं चाहिए क्या? यदि धर्मी बनना हो, धर्म की सेवा करनी हो तो दूसरों का हित साधने में तत्पर बनने का गुण विकसित करिए। भगवान की शक्ति की बात तो भिन्न है, परन्तु हमें अपनी शक्ति के अनुसार तो दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहना ही चाहिए। जैनों को तो जिस दिन परोपकार करने का अवसर प्राप्त न हो, वह दिन व्यर्थ मानना चाहिए। आपकी इच्छा किसका उपकार करने की होती है? जो आपको सलामी भरता हो, आपकी खुशामद करता हो, आपको सेठ साहब आदि आदर सूचक शब्दों से सम्बोधित करता हो, दानवीर-धर्मवीर आदि कहकर आपकी जो प्रशंसा करता हो; ऐसे व्यक्तियों का उपकार करने की प्रायः इच्छा होती है न? और वह उपकार भी आप किस तरह करते हैं? इस पर चिंतन की जरूरत है।

कनखल आश्रम में यद्यपि भगवान महावीर स्वामी तो भावोपकार करने के उद्देश्य से ही पधारे थे और जब से संयम अंगीकार किया था, तब से उन तारणहार का भावोपकार का ही अधिकार था, तो भी यह विचारणीय है कि भगवान कैसी आत्मा का उपकार करने कनखल आश्रम में पधारे थे? जिस आत्मा ने समस्त आश्रम क्षेत्र में त्राहि-त्राहि मचा दी थी, उसका उपकार करने गए थे न? वह नाग क्या उन्हें लेने आया था? नहीं! वह चण्डकौशिक उन्हें लेने नहीं आया था तो भी श्री महावीर परमात्मा उसके पास उसका उपकार करने गए थे। उन्होंने केवल यह देख लिया कि वह उपकार करने योग्य पात्र है, अतः अन्य कोई विचार ही नहीं किया।

कष्ट उठाकर भी उपकार करना, यह सही बात है न? यह बात भी ध्यान देने योग्य है। आज तो अनेक व्यक्ति ऐसे हैं कि उपकार करने की इच्छा नहीं हो, तो सामने वाले का दोष निकालते हैं और कहते हैं कि वह उपकार के योग्य पात्र ही नहीं है। ऐसे व्यक्ति कदाचित् उपकार कर भी लें, तो उपकार की बरकत नहीं होती। ऐसे लोग उपकार भी उपकार के रूप में कर नहीं सकते, अतः उपकार करने का जो विशुद्ध आनन्द है, उसका अनुभव वे नहीं कर पाते। यदि हृदय में उपकार करने की सच्ची लगन हो, तमन्ना हो तो ही उपकार करने के विशुद्ध आनन्द का अनुभव हो सकता है। जैन तो समझते हैं कि किसी पर उपकार करना, अर्थात् अपने आप पर उपकार करना है। वास्तविक परोपकार, स्व-उपकार साधक ही होता है। स्वयं को कष्ट हो उसकी चिन्ता नहीं, परन्तु अन्य प्राणियों के कष्ट निवारण का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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