गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

धन का विवेक पूर्वक त्याग करें


धनवानों को भागीदारों से पीड़ित होने की संभावना है, राज्य द्वारा लूटे जाने की संभावना है और चोरों से परास्त होने की संभावना भी है; यह तो सभी जानते हैं, लेकिन धन के वशीभूत होने वालों को याचकों के समूह भी सताते रहते हैं। याचकों के लिए याचना करने का स्थान ही मुख्यतया धनवान हैं। वे कदाचित निर्धनों के पीछे पड भी जाएं तो प्राप्त क्या करेंगे? धनवानों के पीछे पडने से ही उन्हें कुछ प्राप्त होने की संभावना रहती है। याचक भी जानते हैं कि हमसे परेशान होकर भी धनवान ही हमें कुछ दे सकते हैं। इसलिए याचक उन्हें सताए बिना कैसे रह सकते हैं? राह चलते भी वे धनवानों के पीछे पड जाते हैं। उनके निवास के आसपास भी वे समूह बनाए बिना नहीं रहते।

धनवान व्यक्ति चाहे कितने ही कार्य में व्यस्त हो अथवा कितने ही दुःख में बैठा हो, पर याचक यह बात कभी नहीं देखेगा। वह तो आशा लेकर आता है और जब तक उसकी आशा पूरी नहीं होती, तब तक वह याचना करता ही रहता है। याचक तो धनवान को ढूंढता है। जो धनवान धन के वशीभूत होते हैं, वे इन याचकों की याचना से त्रस्त होते हैं और फिर उन्हें इन पर क्रोध भी आता है, उनके मन में इनके प्रति घृणा पैदा होती है। लेकिन याचकों को यदि भिक्षा नहीं मिलेगी, तो वे क्या करेंगे? चोरी और अपराध करेंगे, उसमें भी पहला शिकार धनवान ही होगा।

धनवान लोग मनुष्य के रूप में, धर्मात्मा के रूप में, सर्वोत्तम धर्मशील सज्जन हों तो भी धन ही अनर्थ का मूल होने से धनवानों के लिए इन सब अनर्थों की सम्भावना तो है ही। ऐसे अनर्थों के अवसर पर भी धनवान यदि समाधि रख सकें और उनके भय की कल्पना से चिंतित न रहें तो यह उनके विवेक का प्रताप माना जाता है। स्वभाव से धन अनर्थ का कारण है, अनर्थ का मूल है; यह यदि आप समझ जाएं तो आप इसे अर्थ-साधक भी बना सकते हैं। धन में ही सार समझने वाले न तो वर्तमान समय में सुख से जीवन यापन कर सकते हैं और न भविष्य में सुख प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे मनुष्यों में न तो संतोष आता है और न उदारता आती है। फिर वे बिना पीडा के भी पीड़ित रहें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। धन का विवेक पूर्वक त्याग कर के ही उसे अर्थ-साधक बनाया जा सकता है। धन की चौकीदारी करने वाले और धन में ही सुख की कल्पना करने वाले; वास्तव में धन को अर्थ-साधक बना ही नहीं सकते। जो लोग धन को वास्तव में अर्थ-साधक बना सकते हैं, वे समझते हैं कि यह धन वैसे तो अनर्थ का मूल है, इससे मुक्त होकर सुख से जीवन जीने की शक्ति जितनी शीघ्र उत्पन्न हो उतना ही उत्तम है। वे यह भी समझते हैं कि जो सुख धन के त्यागी को होता है, वह सुख धन को अर्थ-साधक बनाने वाले को भी नहीं होता। इसलिए धन का विवेक पूर्वक त्याग करें। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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