बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

परोपकार के अभाव में जैनत्व नहीं


आपके हृदय में जो-जो इच्छाएं जागृत होती हों, उन इच्छाओं का पृथक्करण करके उन पर जरा विचार करिए तो परोपकार-भाव में जो अनुपमता समाविष्ट है, उसका थोडा खयाल आएगा। परोपकार की उत्कृष्ट भावना के बल से अपने आराधक भाव को प्रबल करके भगवान श्री जिनेश्वरदेवों की आत्माएं जो तीर्थंकर नाम-कर्म की निकाचना करती है, उस उदय से ही उन तारणहार भगवंतों की आत्माएं अंतिम भव में वीतराग एवं सर्वज्ञ बनने के पश्चात् धर्म-तीर्थ की संस्थापक बनती हैं। तत्पश्चात् नित्य दो-दो प्रहर तक अमोघ धर्म-देशना के स्रोत प्रवाहित करके वे अनेक आत्माओं की उद्धारक बनती हैं और विश्व के प्राणीमात्र की उपकारी होती हैं।

भगवान श्री जिनेश्वरदेव हमें जिस मार्ग का उपदेश देते हैं, वह मार्ग ही इतना उत्तम है कि उसे ग्रहण करने पर संसार के जीव मात्र पर उपकार हुए बिना रहता ही नहीं। जो जीव मोक्ष प्राप्त करें और मोक्ष की आराधना करें, उन पर तो परम उपकार होता ही है, परन्तु जिन जीवों ने कभी न तो भगवान देखे हों और न मोक्ष के संबंध में उन्हें कोई ज्ञान हो; ऐसे जीवों पर भी श्री जिनेश्वर प्ररूपित मोक्षमार्ग से उपकार हुए बिना नहीं रहता, क्योंकि श्री जिनेश्वर प्ररूपित मोक्ष जीव मात्र को अभयदान देने की ही प्रधानता से युक्त होता है। यह मार्ग ही ऐसा है कि उसमें अन्य जीवों के लिए अभयदान का अनुराग उत्पन्न हुए बिना, मोक्षमार्ग के प्रति अनुराग उत्पन्न ही नहीं होता; और ज्यों-ज्यों मोक्षमार्ग के प्रति अनुराग में वृद्धि होती है, त्यों-त्यों अन्य जीवों के अभयदान के अनुराग में भी वृद्धि होती ही है। मोक्षमार्ग की आराधना भी अन्य प्राणियों के अभयदान पर आचरण करने से ही हो सकती है और जो जीव मोक्ष प्राप्त करता है, उससे समस्त संसार के जीव सदा के लिए अभयदान प्राप्त करते हैं।

मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् जीव ऐसा हो जाता है कि वह किसी भी जीव के लेश मात्र भी अहित का निमित्त तो बनता ही नहीं, बल्कि वह जीव भी श्री सिद्धि पद की साधना के लिए अन्य जीवों को प्रेरणा देने वाला होने के कारण वह जीव मात्र के अभय में ही निमित्त बनता है। अब जरा सोचिए कि कोई भी जैन, यदि वह सच्चा जैन हो तो उसमें परोपकार करने की भावना नहीं हो, ऐसा हो सकता है क्या? जो जैन होते हैं, वे परोपकार शिरोमणि श्री जिनेश्वर भगवान के अनुयायी होते हैं। उनके समान परोपकारी संसार में कोई हो ही नहीं सकता। परोपकारपूर्ण मार्ग को स्वतंत्र रूप से प्ररूपित करने वाले एवं धर्मतीर्थ के संस्थापक भी यही हैं। ऐसे उत्तम कोटि के देवों के अनुयायी जैन, ऐसे देवों के उपासक एवं ऐसे देवों की आज्ञानुसार आराधना में ही अपना कल्याण मानने वाले जैन परोपकार भाव से रहित हों, यह असम्भव है। कोई यदि यहां कहे कि मुझ में परोपकार की भावना ही नहीं है तो उसे यह कहना पडेगा कि तुझमें जैनत्व का भी सर्वथा अभाव है -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें