सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

साधु क्या देते हैं?


यदि समझ से काम लिया जाए और सोचा जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि साधु तो विश्व को बहुत कुछ देते हैं और विश्व को जो उत्तम सामग्री साधु प्रदान करते हैं और वे जो प्रदान करने की क्षमता व सामर्थ्य रखते हैं; वैसी उत्तम सामग्री न तो विश्व को कोई देता है और न दे सकता है। साधु जितना भी देते हैं, वे स्वयं जो भिक्षा प्राप्त करते हैं, उसके बदले में नहीं देते, अपितु देना उनका स्वभाव ही है। भिक्षा प्राप्त न भी हो तो भी जो उत्तम सामग्री साधु विश्व को प्रदान कर रहे हैं, वह तो वे प्रदान करते ही रहेंगे। वे विश्व को आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान करते हैं।

धन एवं भोगों के पीछे दीवाने बने विश्व को ये साधु, धन एवं भोगों के परित्याग से प्राप्त होने वाले सुख की ओर आकर्षित करते हैं। मानव-जन्म से ही आत्मा का उत्कर्ष संभव है, यह बात वे विश्व को स्पष्ट करते हैं। साधु अपने उपदेशों आदि से एवं अपने व्यवहार से विश्व को समझाते हैं कि हिंसा-वृत्ति त्याग कर अहिंसक बनो; असत्य त्याग कर सत्यवादी बनो, ताकि वह सत्य न तो आपका स्वयं का अहित करे और न दूसरों का, और यदि करे भी तो अपना एवं दूसरों का हित ही करे; बिना दिए कोई भी वस्तु मत लीजिए; भोगों का परित्याग कर के संयमी बनो और धन आदि के प्रति जो मोह है, उसे त्यागो और उसका संग त्याग दो। जब-तब साधु यही इच्छा बताते हैं कि धर्म का ही लाभ हो। इसलिए वे भिक्षार्थ किसी के घर में प्रविष्ट होते समय और घर में से लौटते समय चाहे भिक्षा प्राप्त हो, चाहे न हो, वे धर्मलाभके ही आशीर्वाद का उच्चारण करते हैं।

छोटे-बडे किसी भी जीव की हिंसा में वे निमित्त न बनें, इस बात की वे सावधानी रखते हैं। यह भी विश्व के जीवों का एक उपकार ही है। तदुपरान्त वे अपनी निश्रा के साधुओं को जो उपदेश देते हैं, वह भी इसी प्रकार का देते हैं कि आप इस प्रकार के व्यक्ति बनो कि जिससे आप सीधी अथवा कुटिल रीति से भी किसी के अहित के कारण न बनो। इतनी उत्तम अथवा इससे भी उत्तम सामग्री विश्व को साधुओं के अतिरिक्त कौन दे सकता है? जिन मनुष्यों की दृष्टि गुणों की ओर न होकर दोषों की ओर है, सदाचार की ओर न होकर दुराचार की ओर है, इन्द्रिय निग्रह की ओर न होकर धन एवं भोगों की ओर है, आध्यात्मिक न होकर पौद्गलिक है, परलोक की ओर न होकर इस लोक की ओर भी बारीकी से नहीं है; उन मनुष्यों को यही लगता है कि साधु लोग समाज से लेते ही हैं, परन्तु उसे देते कुछ भी नहीं हैं। लेकिन, यह भी गौरतलब है कि साधु लोग समाज से जो लेते हैं, वे कोई जबरन नहीं लेते। समाज उन्हें जो देता है, वही वे लेते हैं। वे अपने आचारों का पालन करते हुए निर्दोष रूप से जो कुछ भी प्राप्त करते हैं, वह भी उनका संसार के प्रति वस्तुतः तो उपकार ही है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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