प्राचीन काल में पुण्यशाली लोग याचकों को पुण्य के द्वार तुल्य मानते थे। कोई
याचक बनकर जीवन यापन करे, यह वे चाहते ही नहीं थे, फिर भी यदि कोई उनके पास याचना करने आ जाता तो उन्हें उनसे घृणा नहीं होती और
न ही उन पर गुस्सा आता, बल्कि उनके प्रति अंतःकरण से
सहानुभूति होती, करुणा, दया और अनुकम्पा की भावना होती और वे यही सोचते कि मैं इसका दुःख कैसे दूर
करूं कि इसे फिर से कभी पेट के लिए याचना नहीं करनी पडे, भीख मांगनी नहीं पडे। वे जानते थे कि इन्हें जीवन-निर्वाह के लिए कोई उत्तम
उपाय नहीं दिखाई दिया होगा, तभी यह याचना करने निकला होगा। जिसके पास जीवन-निर्वाह
करने का साधन उपलब्ध हो, उसे याचना करने की इच्छा ही
नहीं होगी।
बिना किसी कष्ट के याचना करना कौन चाहेगा? कौन भीख मांगना पसन्द करेगा? पुण्यशाली व्यक्ति सोचता है कि
अच्छा हुआ यह मेरे पास चला आया और पापरूप लक्ष्मी को पुण्यरूप बनाने का अवसर मुझे
दिया, अन्यथा मैं अनुकम्पा रूप धर्म को कैसे पूरा कर पाता? मेरे पास पर्याप्त धन है और यह दुःखियारा धनाभाव के कारण दुःखी होकर मेरे पास
आया है, तो मैं इसे कुछ देकर इसका कष्ट दूर करूं और धन के प्रति मेरी मूर्च्छा को
भी कम करूं। इस तरह विचार करने वाला व्यक्ति याचक को दान भी देता है तो कितने आदर
एवं कितनी दया के भाव हृदय में लाकर देता है? इससे आत्मा में कितनी निर्मलता आती है?
जिस समय इस प्रकार के पुण्यशाली पर्याप्त संख्या में विद्यमान थे, उस समय चोरी, लूटमार, गुण्डागर्दी आदि घृणित एवं अपराध वृत्ति के कार्य बहुत कम देखने को मिलते थे।
आज ऐसे पुण्यशालियों की, ऐसा सोच रखने वालों की समाज में
कमी हो गई है और परिणाम स्वरूप अपराध वृत्ति बढ गई है। यदि धनी लोगों में थोडी
उदारता आ जाए, वे अपने धन को अर्थ-साधक बनाने
का संकल्प कर लें और समय-समय पर उदारता पूर्वक दान देने लगें, तो याचकगणों को कोई
कष्ट भी नहीं होगा और पुण्यशाली के भी कितने ही खतरे टल जाएंगे।
भीख मांगना अच्छा काम नहीं है, परन्तु हमारे पास सामग्री होने पर भी उसे देने से इन्कार करना, यह उससे भी बुरा काम है। भीख मांगने में तो विवशता है और देने की शक्ति होने
पर भी याचक को देने से इन्कार करने में कृपणता के साथ क्रूरता भी है। जो धनी
व्यक्ति कृपण एवं क्रूर हो, उसकी क्या गति होगी? इस प्रकार का धनी व्यक्ति धर्मात्मा बनने के लिए तो अयोग्य है ही, सद्गति प्राप्त करने के लिए भी अयोग्य है। ऐसे मनुष्य इस भव में सुख से जीवन
जी नहीं सकते, मृत्यु के समय वे शान्ति पूर्वक
मर भी नहीं सकते और मृत्यु के उपरान्त उन्हें सद्गति भी प्राप्त नहीं हो सकती।
-आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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