मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

अपने दोष सुनने की आदत बनाएं


क्या आपके हृदय में ऐसा होता है कि मुझे कोई मेरी झूठी प्रशंसा करने वाला नहीं मिले तो उत्तम हो? आप पहले इस निर्णय पर पहुंच जाइए कि आप स्वयं को कैसा मानते हैं? योग्यता है अथवा नहीं, इसका निर्णय करने के लिए और योग्यता प्राप्त कर के उसको विकसित करने के लिए उपर्युक्त विचार बहुत उपयोगी होगा। आपको उलाहना पसंद नहीं आता हो और अपनी प्रशंसा सुनने की चाह हो तो उसका भी कारण ढूंढना चाहिए। मुँह से यह कह देना बडी बात नहीं है कि मुझ में दोष अनेक हैं। ऐसा तो प्रशंसा पाने के लिए कहने वाले भी अनेक हो सकते हैं। यह तो हृदय की बात है। आप हृदय से यह बात स्वीकार करते हैं क्या कि मुझ में दोष बहुत हैं। आप यदि यह बात हृदय से स्वीकार करते हो तो आपको उलाहना सुनना अच्छा लगेगा और प्रशंसा सुनना बुरा लगेगा; अथवा तो यदि आपको अपनी प्रशंसा सुनना ही अच्छा लगता हो तो आप हृदय में यह समझ जाएं कि यह भी मुझ में एक बहुत बडा दोष है, दुर्गुण है।

आज तक आपने कभी किसी के समक्ष जाकर अपना हृदय सचमुच खोला है क्या? क्या कभी आपने अपनी वास्तविकता किसी योग्य स्थान पर जाकर स्पष्ट की है कि मैं ऐसा हूं या वैसा हूं? उसके साथ क्या कभी यह भी कहा है कि आपको यदि मुझ में योग्यता दृष्टिगोचर हो तो मेरा ध्यान रखना। मुझ में अपने दोष देखने की, ढूंढने की शक्ति नहीं है, अतः आप मेरे दोष देखें और मुझे उन दोषों से मुक्त कराने की चेष्टा करें।आपके गुणों की प्रशंसा करने वाले तो यत्र-तत्र आपको भटकते मिलते होंगे। वे भी कैसे? केवल आपके सामने आपकी प्रशंसा करने वाले; पीठ पीछे तो वे कुछ भी कहें। जो लोग आपके समक्ष आपकी प्रशंसा करें और वे ही पीठ पीछे आपकी निन्दा करें, वे आपको अच्छे नहीं लगने चाहिए। ऐसी आपकी मिथ्या प्रशंसा करने वालों की आपके हृदय में कोई कीमत नहीं होनी चाहिए। ये सब बातें आपको अयोग्य सिद्ध करने के उद्देश्य से नहीं कही जा रही है, अपितु आप इन पर सोच सकें, इसलिए कही जा रही हैं।

आपने क्या कभी किसी को कहा है कि आपको यदि मुझ में गुण दृष्टिगोचर हों तो उनके विषय में तो मुझे कुछ न कहें, और मुझ में यदि दोष दृष्टिगोचर हों, तो वे दोष आप मुझे अवश्य बताएं?’ परन्तु; जो स्वयं को दोष-युक्त माने ही नहीं, वह किसी को यह क्यों कहेगा कि आप मुझे मेरे दोष बताएं। यह एक बहुत बडी अयोग्यता है। प्रतिबोध देने योग्य वह जीव होता है, जिसमें अपने दोषों के विषय में सुनने की शक्ति हो और दोषों के विषय में सुनकर भी उन्हें दूर करने की लगन लगे, ऐसा जिसका हृदय हो। जिस मनुष्य को अपने दोषों के विषय में सुनते ही दोष बताने वाले पर क्रोध उत्पन्न होता हो, वह कभी गुणवान बन ही नहीं सकता। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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