आजादी के 68 सालों बाद भी देश की स्थिति यह
है कि यहां के बच्चे अनाथालयों में पैदा होते हैं, युवक अंधेरों में भटकते हैं, वयस्क-प्रौढ
पेट की भूख के गुलाम हैं और बूढे मुरझाई आंखों से, पिचके गालों और सिमटे हुए पेट को दबाए मौत की इंतजार में सांस लेते रहते हैं।
देश में कई स्थानों पर एक दृश्य देखा जा सकता है। होटलों में जूठी प्लेटें साफ
कर के उनकी बची जूठन जब बाहर फेंकी जाती है, तो इंसानों के बच्चे कुत्तों की तरह झपट कर उन जूठे दानों से अपना खाली पेट भरते
हैं।
स्वर्ग में बैठी आजादी के शहीदों की आत्माएं जब देश की यह स्थिति देखती होंगी तो
क्या सोचती होंगी; यह सोचकर रगों का खून जमने
लगता है। देश की सम्पूर्ण स्थिति पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि देश अंग्रेजों की
गुलामी से मुक्त होकर इसी देश के चन्द राजनीतिबाजों एवं कालाबाजारियों की गुलामी के
चंगुल में फंस गया है।
आप से हाथ जोडकर एक विनति है कि भोजन में जूठन कभी नहीं छोडें और कोशिश करें कि
पेट में जितनी गुंजाइश हो उससे थोडा कम खाएं व बाकी का बचाकर किसी और को खिलाएं। इससे
आपकी सेहत भी अच्छी रहेगी और किसी और की भूख भी बुझ सकेगी।
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