शास्त्र में श्रावकों को साधु के माता-पिता कहा है। श्रावक को मां-बाप जैसा भी
कहा है और सांप जैसा भी कहा है। आप यदि मां-बाप बनो तो हमारा काम हो जाए। मां-बाप
बनोगे? लेकिन जिनको अपने स्वयं के बच्चों का मां-बाप बनना नहीं आया, वे
साधुओं के किस प्रकार बनेंगे? महाव्रतधारी के मां-बाप बनना क्या इतना
सरल है? श्रावक मां-बाप जैसे बन जाएं तो तो साधुओं की सारी चिन्ता खत्म हो जाए; साधुओं
के संयम की चिन्ता आपको होने लगे कि साधुओं के संयम में किस प्रकार वृद्धि हो, किस
प्रकार टिके,
किस प्रकार शुद्ध हो, कैसे फैले, ये
सब चिन्ताएं श्रावक करें तो फिर बाकी क्या रहे?
व्यवहार में बेटा अच्छा कैसे बने, लाख के करोड कैसे करे, आलीशान
गाड़ियों में कैसे घूमे;
यह सारी चिन्ता मां-बाप को होती है न? इसी
प्रकार साधुओं का संयम कैसे पले, कैसे बढे, कैसे जगत में उस संयम
का फैलाव हो;
यह चिन्ता श्रावक करे तो इसमें हमें आनन्द होगा या दुःख? मैं
तो मांग करता हूं कि आप ऐसे मां-बाप बनें। आपने मां-बाप का फर्ज छोड दिया, उसी
की यह परेशानी और चर्चा है। आपको यह बात महसूस होनी चाहिए।
आज साधुओं में शीथिलाचार आया कहां से? इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं? सांप
अपने ही बच्चों को नष्ट कर देता है, श्रावक ही साधुओं को संयम से
नीचे गिरने के साधन सुलभ कराते हैं। मां-बाप ही बच्चे की कमजोरियों पर पर्दा डालकर
उसे बिगाडते हैं। ऐसे मां-बाप क्या वाकई अच्छे मां-बाप हैं जो अपनी औलादों को गलत
रास्ते पर धकेल देते हैं?
नहीं। आप अच्छे मां-बाप बनिए! -सूरिरामचन्द्र
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