शनिवार, 5 सितंबर 2015

भावना और विवेक ही महत्वपूर्ण



यदि आपको सच्चा सुख पाना हो तो संयमी होना चाहिए अथवा संयम सुलभ हो ऐसी योजना प्रयत्न पूर्वक करनी चाहिए। दुनियादारी के पदार्थों पर ममता सर्वथा छोडनी चाहिए, अथवा वह सर्वथा छूट जाए, ऐसी प्रवृत्ति करनी चाहिए। क्योंकि, दुनियादारी की चीजों से ममता घटेगी तो ही धर्मशासन के सच्चे आराधक बन सकेंगे और यथासंभव सच्चे प्रभावक भी बन सकेंगे।

यदि ममता का त्याग नहीं करेंगे, तो आप सच्चे आराधक और प्रभावक नहीं हो सकेंगे। आज कई धर्मक्रियाएं होती हैं, परंतु वे कैसी? अधिकांश ऐसी होती हैं कि उनसे उचित आत्म-लाभ नहीं मिलता। व्यवहार में भी ऐसा कहा जाता है कि कृपण के घर भोजनादि खर्च डबल होते हैं तो भी यश के बदले जूते ही मिलते हैं और उदार के यहां खर्च कम होकर भी यश अधिक मिलता है।क्योंकि दोनों के दिल और भावनाओं में भेद (फर्क) होता है। ऐसा इस विषय में भी समझना चाहिए।

पुण्योदय के साधन भी यदि हृदय-भेद हो तो पाप के साधन बन जाते हैं! निमित्त का उपयोग करना न आए तो शुभ भी अशुभ में बदल जाता है। इससे समझा जा सकता है कि हृदय की शुद्धि से समझपूर्वक अथवा सुज्ञ की आज्ञानुसार आत्म-कल्याण की क्रियाएं करना, सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है। व्यवहार से आप देखते हैं कि सूझता व्यक्ति ठोकर खाता है तो प्रायः उसका बचाव कोई नहीं करता, परंतु अंधा व्यक्ति ठोकर खाता है तो उठाने, बचाने और पहुंचाने जाने तक की सहायता करने वाले मिल जाते हैं।

इसी तरह सम्यग्दृष्टि आत्मा अर्थात् सूझती आत्मा है और वह भूल करती है तो अधिक बुरी कही जाती है। जैसे सूझता व्यक्ति खड्डा चट्टान, कंकर, पत्थर आदि देखकर चलता है, क्योंकि ठोकर लगने से गिर सकता है, खून निकल सकता है और पट्टा बांधना पड सकता है और बिस्तर पर भी सोना पड सकता है, ऐसा वह समझता है। वैसे ही सम्यग्दृष्टि आत्मा भी दृष्टि का उपयोग रखता है। परंतु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि टींचाने (दोष सेवन) से अज्ञानी को अल्प बंध होता है, क्योंकि टींचाने से अंधे को कम लगती है, ऐसा नहीं होता अपितु अधिक लगती है, ऐसा अनेक बार होता है, क्योंकि सूझता व्यक्ति जैसे बचने का साधन ढूंढ लेता है, वैसे अंधा व्यक्ति बचने का साधन नहीं ढूंढ सकता। इसी तरह सम्यग्दृष्टि आत्मा भी खराब साधनों को अच्छा बना देता है। सार ढूंढने की शक्ति के कारण वह सच्ची समझवाली आत्मा भोग में फंसी होकर भी वैराग्य से दूर नहीं होती, इतना ही नहीं, भोग के स्थान में भी वह अपनी सद्भावना को स्थिर रख सकती है। इससे आप समझ सकेंगे कि शुद्ध सम्यग्दृष्टि आत्मा को विषय का तीव्र विष नहीं चढता, क्योंकि उन आत्माओं में विषय विषतुल्य हैं’, यह विवेक जागृत ही होता है।-सूरिरामचन्द्र

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