प्रत्येक शून्य का अपना महत्व है, पर बिना अंक के उसका
मूल्यांकन नहीं होता,
अंक शून्य से पहले लगकर दो काम करता है - खुद का मूल्यांकन
तो बढाता ही है,
शून्य की महत्ता भी वह स्थापित करता है. यूं देखें तो अकेले
शून्यों की कोई कीमत नर्ही है, पर अंक के साथ मिल जाने पर हर शून्य की
अपनी कीमत बढती चली जाती है. क्षमा अंक है और शेष सारी सत्प्रवृत्तियां जैसे कि
पूजा-अर्चना,
तप-जप, सेवा-सुश्रुषा, दान-पुण्य
इत्यादि शून्यों के बराबर है. इन धर्म-प्रवृतियों की चाहे जितनी संख्या हो, क्षमा-रहित
इनका कोई मूल्य नहीं होता,
किन्तु क्षमा के साथ जब भी ये सत्प्रवृत्तियां आचरित होती
हैं; इनमें से हर एक की कीमत बढती चली जाती है. यही उपादेय है कि हम शून्यों के मूल्यांकन को सिद्ध करने व बढाने के लिए शून्यों से पहले अंक को
रखें. क्षमा के अभाव में जो कुछ भी किया जाएगा, वह निष्प्राण होगा. क्षमा ही
धर्म और सदाचरण का प्राण है.
और
अन्त में...
खमिअ
खमाविअ मई खमह,
सव्वह जीवनिकाय; सिद्वह-साख आलोयणह, मुज्झह वइर न भाव।। जं जं मणेण बद्धं, जं
जं वाएण भासिअं पावं; जं जं काएण कयं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स।।
मैं
सभी को क्षमा करता हूं,
सभी मुझे क्षमा करें. सिद्धात्माओं की साक्षी में मैं
प्रायश्चित करता हूं कि मेरा किसी से वैर-भाव नहीं है. जो-जो पाप मैंने मन से
बांधे हों, जो-जो दुर्वचन वाणी से उच्चारित किए हों, उन सभी की मैं क्षमायाचना
करता हूं... -जैन संथारा पोरिसी सूत्र (15 व 17)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें