रविवार, 6 सितंबर 2015

बालदीक्षा का विरोध क्यों ?



बालक विनयशील, विवेकवान व आज्ञाकारी बने, उस पर लेशमात्र भी क्रोध और अहंकार की छाया न पडे, झूठ और चोरी से वह हमेशा कोसों दूर रहे, ताकि उसका जीवन सफल और सार्थक बने; यह जिम्मेदारी मूलतः माता-पिता की ही है, क्योंकि गर्भ से लेकर युवा होने तक वे ही उसे संस्कारित कर सकते हैं और अपने स्वयं के आचरण का ध्यान रखते हुए उसे भी सन्मार्ग में टिकाए रख सकते हैं। गर्भ से लेकर आठ वर्ष तक की आयु इसके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मनोविज्ञान भी इस बात की तस्दीक करता है.

इस प्रकार संस्कारित बच्चा आठ वर्ष या उससे आगे की किसी भी आयु में अपने पारिवारिक संस्कारों में अपने मनोभाव से, अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर दीक्षा लेता है और उसे आगे भी शिक्षा व संस्कारों का ऐसा ही वातावरण मिलता है कि वह अपने जीवन को उन्नत बना सके और मानवीय गरिमा व गौरव के अनुरूप जीवन जी सके तो आज की विध्वंसकारी वैश्विक परिस्थतियों में तो यह और भी महत्वपूर्ण व सम्मानजनक है और दुनिया के किसी भी न्यायालय को इसका समर्थन करना चाहिए. ऐसे हजारों उदाहरण हैं कि बचपन में संयम ग्रहण करने वाले बहुत ही महान आचार्य बने हैं और उन्होंने मानवता की सर्वोत्कृष्ट सेवा की है. बालदीक्षा क्या केवल जैनधर्म में ही होती है? बौद्धधर्म में भी होती है, जगतगुरु कहलानेवाले श्री शंकराचार्यजी के यहां भी होती है, अन्य कई मत-मतांतरों में होती है। यह आर्य संस्कृति है.

यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है कि आज तक जितने बडे-बडे महापुरुष, बडे-बडे आचार्य व बडे-बडे शास्त्रों के लेखक हुए हैं, उनमें बालदीक्षितों की संख्या ही ज्यादा है, चाहे वे कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य हों, श्री शंकराचार्य हों, संत ज्ञानेश्वर हों, ऐसे हजारों नामों की सूची हो सकती है। यानी जो बचपन में दीक्षा लेते हैं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, तप-तेज उच्च कोटि का होता है व उनमें पूर्व जन्म के ऐसे संस्कार और पुण्य होता है; फिर बालदीक्षा के नाम पर हायतौबा क्यों? दूसरा, जो दीक्षा ले लेता है, किन्तु संयम नहीं पाल सकता, वह वापस परिवार में कभी भी लौट सकता है। दीक्षार्थी को वहां बंधक बनाकर नहीं रखा जाता।

अभी देशभर में जैन साधु-साध्वियों की कुल संख्या बारह हजार से अधिक है, जबकि इनमें बाल साधु-साध्वियों की संख्या 60 से 70 के बीच ही है जो 15 वर्ष से कम आयु के होंगे और 15 से 18 वर्ष के बीच भी 40-50 साधु-साध्वियों से अधिक नहीं हैं। उनका बिना किसी तकलीफ के बहुत अच्छा अध्ययन चल रहा है। इनमें से भी आचार्य श्री कीर्तियशसूरीश्वर जी म.सा. के पास तो एक भी नहीं है। फिर हर कोई बालक दीक्षा नहीं ले लेता, यह रेयर में रेयर केस होता है, क्योंकि हर किसी को वैराग्य नहीं हो जाता। जैन समाज में जितनी दीक्षाएं होती हैं, उनमें से 0.5 प्रतिशत भी बालदीक्षाएं नहीं होती। बडे होकर दीक्षित होनेवालों में से संयम नहीं पाल सकने और वापस संसार में लौटनेवालों की अपेक्षा बालदीक्षितों के वापस लौटने की संख्या अत्यंत नगण्य है। फिर क्यों इस पर गाज गिराई जाती है और इसके नाम पर व इसकी आड़ में समूचे जैन धर्म पर आक्रमण किया जाता है? यह एक षडयंत्र का हिस्सा है, जिसे समाज को समझना चाहिए और जरूरी कदम उठाने चाहिए।

सिनेमा और टीवी सीरियल में बाल कलाकार के रूप में बच्चों को भेजना ठीक है? क्रिकेट के मैदान में बच्चों को हाथ-पांव तुडवाने के लिए भेजना ठीक है? इनमें जानेवाले बच्चों की सफलता दर कितने फीसदी है और फिर उन असफल बच्चों का क्या होता है? क्या इनमें बच्चों का सर्वांगीण विकास हो जाता है? इनकी तुलना में बालदीक्षित साधु यदि प्रकाण्ड विद्वान बनता है और स्व-पर कल्याण करता है तो कौनसा विकास ज्यादा अच्छा है? सर्वांगीण विकास का आपका पैमाना क्या है, क्या उस पर सवाल नहीं उठना चाहिए? क्या आज की आधुनिक शिक्षा बच्चों का सर्वांगीण विकास कर पा रही है या उससे निराश बच्चों में आत्महत्या का प्रतिशत बढ़ा है? जितने बच्चे आत्महत्या करते हैं उतने तो दीक्षा भी नहीं लेते.

लोगों को बालदीक्षा लेने वाले इक्का-दुक्का बच्चे तो नजर आ जाते हैं, जिनका पालन-पोषण बहुत ही उच्च तरीके से होता है, जिनका भविष्य बहुत ही संस्कारित, उज्ज्वल और गौरवशाली बनता है (जिसे क्रूरता की संज्ञा दी जा जाती है); लेकिन वे करोडों बच्चे क्यों नहीं दिखाई देते जो भूखमरी, कुपोषण, बाल एवं बंधुआ मजदूरी के शिकार होकर अपना दम तोड रहे हैं या आवारागर्दी व अपराध में संलग्न हो जाते हैं। दीक्षित बच्चों पर कोई दुराचार नहीं किया जाता, बल्कि दीक्षा के दिन से ही वे बडों के लिए भी पूजनीय और वंदनीय हो जाते हैं।

सनद रहे बालदीक्षाएं होती रही हैं, आज भी होती हैं और भविष्य में भी होती रहेंगी। बच्चे आज की शिक्षा और आधुनिकता का वातावरण पाकर लुच्चे बनें या अपराधी बनें, उससे अच्छा है कि वे संस्कारी बनें, जो संयम पाल सकें, जिनका परिवार अनुमति दे, वे संयम पालें और विद्वान संत बनें, स्व-पर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हों।

आज की औपचारिक शिक्षा, स्कूलों का वातावरण, टीवी चेनल्स पर प्रसारित होनेवाले दृश्य और सीरियल्स, पोर्न इंटरनेट और वातावरण बच्चे को क्या दे रहे हैं, क्या बना रहे हैं? देश में कितने प्रतिशत बच्चों को आज की आधुनिक शिक्षा वास्तव में इंसान बना पा रही है? आज के तथाकथित उच्च शिक्षित तनाव और अवसादग्रस्त क्यों हैं? कितने फीसदी शिक्षितों को मानवीय गरिमा के अनुरूप रोजगार मिल पा रहा है? देश के कितने फीसदी बच्चे कुपोषण और भूखमरी के शिकार हैं या गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं? कितने फीसदी शिक्षित हत्या, बलात्कार और अन्य गंभीर अपराधों में संलग्न हैं? सर्वाधिक भ्रष्टाचार करनेवाले कौन हैं? वहीं दूसरी ओर यदि बाल्यावस्था में ही दीक्षा दी जाती है और इंसान को इंसान बनाए रखा जाता है, उसे संसार की समस्त बुराइयों से बचाया जाता है, गौरव-गरिमा के साथ उसका संस्कार किया जाता है, उसका अच्छे से अच्छा पोषण किया जाता है, उसे मानव से महामानव बनने की दिशा में अग्रसर किया जाता है, उसे इस काबिल बनाया जाता है कि बडे-बडे श्रेष्ठी भी उसका चरण वंदन करें, ऐसे सदाचारी, उज्ज्वल चरित्र के इंसान बनाने के लिए सारे प्रयत्न होते हैं और वाकई वे बनते हैं; तो फिर इस पवित्र ध्येय और उपक्रम के खिलाफ हायतौबा क्यों?

बचपन में ही दीक्षा लेकर संयम ग्रहण करने वाले कितने प्रकाण्ड विद्वान महान संत और आचार्य हुए और उन्होंने कितने-कितने शास्त्र लिखे? और उनकी तुलना में बचपन में संयम लेकर गिरनेवालों की संख्या कितनी है? इनकी तुलना में आज की आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में पल्लवित होने वालों में चरित्रवान कितने फीसदी बनते हैं कि जीवन में जिन पर कोई दाग नहीं लगे और कितने फीसदी भ्रष्ट व पतित बनते हैं? लोग आधुनिकता के फेर में भले ही बालदीक्षा के खिलाफ शोर मचाएं, लेकिन जरा हिसाब लगाकर बताइए ! कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है?

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