निर्वेद सम्यक्त्व का तीसरा लिंग है। जीव-मात्र को सुख अच्छा लगता है और दुःख
अच्छा नहीं लगता है,
यह बात निश्चित है। न चाहने पर भी दुःख आ-आकर खडा हो जाता
है और सुख अच्छा लगने पर भी दूर-दूर भाग जाता है, ऐसा तो संसारी जीवों
को बार-बार अनुभव होता है। दुःख को हटाने का प्रयत्न करने पर भी दुःख बढता है और
सुख के लिए लाख कोशिशें करने पर भी सुख भागने लगे, ऐसा तो इस संसार में
बहुत बार होता है। ‘लेने गए और खोकर रोते-रोते घर आए’, ऐसा अनुभव भी आपको हुआ होगा!
एक अनिष्ट को दूर करने के प्रयत्न में, वह भी चिपका रहे और नया
अनिष्ट भी आ मिले,
ऐसा भी हुआ होगा! तो, सही रूप में आपकी कदर्थना कौन
करता है? अन्य कोई नहीं,
आपका कर्म ही वस्तुतः आपकी कदर्थना करता है। इस कर्म पर
काबू पा कर कोई जीव संसार में सुख से जी सकता है क्या? नहीं।
यह संभव नहीं है।
इसी तरह विचार करते-करते संसारवास के प्रति जो नफरत पैदा हो या संसार-वास से
थकान आ जाए, उसे निर्वेद कहा जाता है। संसारवास के प्रति अरुचि उत्पन्न होना संवेग है और
मोक्ष की अभिलाषा निर्वेद है, ऐसा अर्थ भी किया जाता है। पांच
इन्द्रियों के पांच विषयों के प्रति गृद्धि के त्याग को भी निर्वेद कहते हैं।
गृद्धि अर्थात् अति आसक्ति। ‘विषयों की अति आसक्ति जीव को इस लोक में
भी अनेक उपद्रवों का भोग बनाती है और विषयों की अति आसक्ति से उपार्जित पाप के
कारण जीव को परभवों में,
नरकादि गतियों में भयंकर दुःख भोगने पडते हैं’, ऐसे
विचार से जीव को विषयों के प्रति विराग का जो भाव पैदा होता है, उसे
भी निर्वेद कहा जाता है। कर्मग्रंथि को भेदने वाले जीवों में ऐसा विषय-विराग होना
स्वाभाविक है। अविरति के जोरवालों में कदाचित यह न भी प्रतीत हो यह संभव है, परंतु
प्रत्यक्ष में विषय-विराग न भी प्रतीत हो तो भी सम्यक्त्व प्राप्त आत्मा में उसका
भाव होता ही है।
जीव जहां तक संसारवास से, अर्थात् ‘इस संसार में पराधीन
होकर चार गतियों में परिभ्रमण करना पडता है और प्रायः इसमें दुःख ही भोगना पडता है; यद्यपि
दुःख अच्छा नहीं लगता,
फिर भी उसका स्वयं से प्रतिकार नहीं हो सकता’, इससे
नफरत न करे, वहां तक तो उसमें कोई आत्मगुण वास्तविक रूप में प्रकट नहीं हो सकता। संसार के
स्वरूप को जानने से उसके प्रति जो अरुचि उत्पन्न होती है, उसे
निर्वेद कह सकते हैं। इसके बाद, मोक्ष को जाने, अर्थात्
उसे मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा ही हो। मोक्ष-सुख का ज्ञान हो जाने पर उसे संसार
के चाहे जैसे सुख के प्रति भी लगाव नहीं होता। यह सुख भोगने के लिए संसार में रहना
चाहिए, ऐसा विचार उसे नहीं होता।-सूरिरामचन्द्र
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