‘संसार
असार है और मनुष्य जन्म दुर्लभ’, हमारी ये बातें आज हवा में उड जाती हैं।
दुर्लभ मनुष्य जन्म भी यदि मुक्ति की साधना में उपयोगी न हो तो वह महापाप का बंध
कराता है। अरिहंत देवों ने दुनिया के जीवों से सांसारिक सुख, जिसके
पीछे दुःख छिपा हुआ है,
उसे ही छुडवाने के लिए मेहनत की है, सांसारिक
सुख, सुखाभास या क्षायिक सुख देने के लिए मेहनत नहीं की। अपितु जीव अक्षय
सुख-शान्ति पा सके, इसके लिए सारी मेहनत है। किसी भी सांसारिक सुख के विषय में सुख
का अनुभव करना मैथुन है! मैथुन की यह विशद व्याख्या है। चौथा और पांचवां पाप नरक व
तिर्यंच का कारण है। यह जानने के बाद भी दोनों पापों में आनन्द आए और उस आनन्द आने
का दुःख भी न हो,
यह मूर्खता नहीं तो और क्या है? मैथुन
और परिग्रह नाम के इन चौथे पांचवें पाप के बल से ही आगे-पीछे के अन्य पाप पनपते
हैं। ये ही सारे पापों के बाप हैं, ऐसा कहा जा सकता है। जो इन दो
पापों का आचरण नहीं करता,
उन्हें अन्य पाप नहींवत् लगते हैं। संसार का सुख भोगना, यह
चौथा पाप और उस सुख की सामग्री, यह पांचवां पाप है। यदि ये दोनों आपको पाप
रूप लगें तो ही मेरा धर्मोपदेश आगे चलता है। इन पापों को पाप मानने की योग्यता
वाले जीव ही संसार को असार समझने की योग्यता रखते हैं। परिग्रह को पाप बताते समय, ‘पैसे
से ही मन्दिर उपाश्रय बनते हैं’, ऐसा कहने वालों से मेरा प्रश्न है कि ‘कितने
पैसों से मन्दिर उपाश्रय बनवाए और कितने पैसे मौज-मजे में खर्च किए?’ मैं
जब पैसे को बुरा कहता हूं,
तब मन्दिर-उपाश्रय मेरी आँखों से ओझल नहीं होते। ‘पैसा
अच्छा है’, इस बात में आप हमारी स्वीकृति लेने का प्रयास मत करिए, क्योंकि पैसा तो हर हाल में पाप का मूल ही है, उसे अच्छा कहकर कमाने का
समर्थन नहीं किया जा सकता है. -सूरिरामचन्द्र
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