आजकल ज्यों-ज्यों धर्म करने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है, त्यों-त्यों
धर्मस्थान प्रायः खतरे में पडते दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि
वे किसी की आज्ञा में रहना नहीं चाहते। बिना स्वामी वाले बडे-बडे कारखानों की कैसी
विषम स्थिति हुई है,
यह किसी से छिपा नहीं है। स्वयं के स्वामित्व में जो
कारखाने अपार लाभ कमाते थे,
वे ही कारखाने सरकारी अधिग्रहण के बाद भीख मांगते हो गए।
स्वामी के हाथ से सेवकों के हाथों में काम जाने का ही यह परिणाम है। धर्म क्षेत्र
में भी स्वामी के अभाव में ऐसी स्थिति होगी ही।
आपको समझना चाहिए कि मन्दिर, उपाश्रय इच्छानुसार तमाशा करने के अखाडे
नहीं हैं। ये तो विधिपूर्वक धर्म-क्रिया करने के तारणहार धर्म-स्थल हैं। जो लोग यह
बात नहीं समझते,
उनका कल्याण धर्म स्थानों से भी नहीं हो सकेगा, यह
निश्चित है। धर्मात्मा लोग गुरुओं के अधीन होने चाहिए। यदि इस तरह हों तो ही
मन्दिर और उपाश्रय कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। आपकी दाढी पर हाथ फिरा-फिराकर
आपका धन धर्म में व्यय कराने से धर्म को कोई बडा लाभ होता हो, ऐसा
मुझे नहीं लगता। ज्ञान और आवश्यकता दोनों का अभाव होने से ऐसे धर्मात्माओं से तो
यदि ध्यान नहीं रखा जाए तो साधु भी लुट जाएं। आज तो अविधि ही मानो विधि हो गई है।
यदि इसी प्रकार चलता रहा तो आत्म-कल्याण तो कोसों दूर ही रहेगा। धन को त्याज्य
मानने वाला व्यक्ति ही धन से धर्म कर सकता है। जिसे धन त्याज्य ही न लगे, वह
धन से धर्म कर ही नहीं सकता। वह तो धर्म को टुकडा फेंकता है। ऐसे व्यक्ति से तो दान
कराना भी खतरनाक हो सकता है।-सूरिरामचन्द्र
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