प्राणी मात्र के कल्याण की
उत्कृष्ट भावना के फल स्वरूप महापुण्य उपार्जित करने के बाद अनंतज्ञानी बने
परमात्मा ने तथा उन तारक परमात्मा की आज्ञा वहन करने वाले अन्य महापुरुषों ने इस
बात का निर्णय करके कहा है कि जब तक व्यक्ति की आत्म-दृष्टि, अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती, तब
तक उसका कल्याण होने वाला नहीं है। आजकल बाह्यदृष्टि खूब बढ गई है, इस कारण ‘मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां मुझे जाना है’, इसका विचार ही नहीं आता है। जो कुछ आँख के सामने है, उसी की साधना करना, लगभग
यह दृष्टि अधिकांश लोगों की हो गई है। जिनके पास थोडी-बहुत अन्तर्दृष्टि है तो वे
भी प्रायः निश्चित ध्येय वाले नहीं हैं।
जिसे साध्य का निश्चय नहीं है, वह कोई भी कार्य सिद्ध नहीं कर सकता है। विवेक रहित
आत्मा को पौद्गलिक सुख प्रदान करने वाले पदार्थ भी सुख देने में समर्थ नहीं होते
हैं। परन्तु, इस बात का निर्णय तो तभी हो सकता
है, जब आप स्वयं विचार करोगे। अभी
विचार नहीं करोगे तो एक दिन आपको विचार करना पडेगा। परन्तु, उस समय आप कुछ भी करने में असमर्थ बन जाओगे। इसीलिए
ज्ञानियों ने यह विचार अंत समय में नहीं, अपितु हमेशा करने को
कहा है।
जो दुनिया आँख के सामने आती है, उसे हम प्रत्यक्ष देखते हैं। ‘संपत्ति वाले सुखी हैं और संपत्ति हीन दुःखी हैं अथवा
साधन-सम्पन्न सुखी हैं और साधन-हीन दुःखी हैं’, ऐसा एकांत नियम नहीं है। संपत्ति व साधन हीन होने पर भी कई सुखी होते हैं और
संपत्तिवान व साधन-सम्पन्न होने पर भी कई दुःखी होते हैं। परन्तु, यह बात अंतर्दृष्टि वाले बनोगे तब ही खयाल में आ
सकेगी। इसीलिए ज्ञानी अन्तर्मुखी बनने की प्रेरणा देते हैं।
भूखे व्यक्ति को देखकर जितनी दया
आती है, उतनी दया पापी को देखकर नहीं आती
है। एक व्यक्ति भूखा होने पर भी समभाव में स्थिर रहकर मर जाता है और दूसरा व्यक्ति
पाप करते हुए दुर्भाव में मर जाता है। इन दोनों में खराब हालत किसकी होने वाली है? दुर्भाव में मरने वाले की। पूर्व काल के उत्तम
पुरुषों की यह विशेषता थी कि उन्हें भूखे रहने में जितना दुःख नहीं होता था, उतना दुःख पाप करते समय होता था। भूख के दुःख के समय
तो वे अपना कल्याण साध लेते थे।
आज अधिकांश लोगों में पाप का भय
नहीं है, पाप के प्रति तिरस्कार नहीं है। इस
कारण पापी की दया प्रायः नष्ट हो गई है। आज दुनियावी दृष्टि से जो लोग अच्छे माने
जाते हैं, उनके पापों की गिनती की जाए तो पार
नहीं आएगा। फिर भी आपको उनके जैसा बनने की इच्छा होती है, किन्तु
साधु को देखकर साधु बनने की इच्छा नहीं होती है। कारण कि आपकी अंतर्दृष्टि नहीं
खुली है, आपको पाप-पुण्य का विचार नहीं है
और मोक्ष आपका लक्ष्य नहीं है।-सूरिरामचन्द्र
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