जीव और अजीव,
ये दोनों तत्त्व जैसे अनादिकाल से हैं, वैसे
जीव और अजीव तत्त्व का,
अर्थात् जीव और कर्म का योग भी अनादि से ही है। ‘पहले
जीव शुद्ध था और बाद में कर्म के योग वाला बना’, ऐसा मानने पर प्रश्न खडा होगा
कि शुद्ध जीव,
कर्म के योग वाला अर्थात् अशुद्ध क्यों कर बना? जिस
जीव में राग-द्वेष या अज्ञान आदि कुछ न हो और जो केवल शुद्ध स्वरूप वाला हो, वह
जीव कर्म के संयोग वाला बन ही नहीं सकता। क्योंकि, ऐसा मानने से किसी
प्रकार का कार्य-कारण भाव घटित नहीं हो सकता।
जो अशुद्ध हो और यदि उसमें शुद्ध होने की योग्यता हो, तो
वह शुद्ध बन सकता है,
परन्तु जिसका कोई कारण न हो, अर्थात् जो जीव शुद्ध
स्वरूपवाला है,
वह अशुद्ध स्वरूप वाला बने, यह संभव नहीं है।
सच्चिदानंदमय जिसका स्वरूप है और जिसके शरीर, इन्द्रियां आदि कुछ न हो, वह
जीव कर्म के योग वाला बना,
ऐसा यदि कोई कहे तो उसे यह समझाना पडेगा कि वह जीव किस कारण
से कर्म के योग वाला बना?
शुद्ध जीव के लक्षण में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो
शुद्ध जीव को कर्म के योग वाला बना सकती हो। राग नहीं, द्वेष
नहीं, अज्ञान नहीं,
इन्द्रियां नहीं; ऐसा जीव कर्म के योग वाला कैसे
बन सकता है? नहीं बन सकता।
इसलिए जैसे जीव और अजीव के अस्तित्व को अनादिकालीन मानना पडता है, वैसे
जीव के साथ कर्म के योग के अस्तित्व को भी अनादिकालीन ही मानना पडता है। हमारी
आत्मा कर्म से सम्बद्ध है न? हां! कब से हमारी आत्मा कर्म से सम्बद्ध
है? अनादिकाल से। ऐसा माना,
इसीलिए जीव और अजीव का अस्तित्व अनादिकालीन है, यह
बात सिद्ध हुई। हम कभी नहीं थे और पैदा हुए, ऐसा नहीं है। यह जगत् कभी
नहीं था और पैदा हुआ,
ऐसा भी नहीं है। इसी तरह हम पहले शुद्ध ही थे और बाद में
कर्म के योग से अशुद्ध बन गए, ऐसा भी नहीं है। जीव का अस्तित्व भी
अनादिकालीन है;
अजीव का अस्तित्व भी अनादिकालीन है और जीव एवं कर्म का योग
भी अनादिकाल से है।
जीव और अजीव का अस्तित्व जैसे अनादिकाल से है, वैसे जीव और अजीव का
अस्तित्व कितने काल तक रहने वाला है? कोई काल ऐसा नहीं आने वाला है, जिसमें
जीव और अजीव का अस्तित्व मिट ही जाता हो। अस्तित्व मिटता हो तो ये जाएं कहां? जीव
द्रव्य और अजीव द्रव्य अनादिकालीन हैं, नित्य हैं; परन्तु
उनकी अवस्थाएं बदलती ही रहती हैं। जीव ने यहां जन्म लिया तो कहीं से मर कर और यहां
जीव मरा तो यहां से रवाना होकर कहीं उत्पन्न हुआ। वस्तुतः जीव न तो जन्मता है और न
मरता है। शरीर का परिवर्तन होता है, उसे हम जन्म-मरण कह देते हैं।-सूरिरामचन्द्र
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