आज अधिकांश को धर्म-विषयक अज्ञान खटकता ही नहीं है। व्यावहारिक ज्ञान के प्रति
जैसी ललक है,
धार्मिक ज्ञान या तात्विक ज्ञान के प्रति वैसी ललक लगभग
नहीं है। व्यावहारिक विषयों का अज्ञान इतना अधिक खटकता है कि अनपढ माँ-बाप भी
पुत्रों को शक्ति से उपरांत जाकर भी पढाने का प्रयत्न करते हैं। व्यवहार में तो
लडका जरा-भी बडा हुआ कि उसे पढाने की सावधानी रखी जाती है। पढाने की मेहनत करने पर
भी यदि लडका ठीक से नहीं पढ पाता है तो विचार आता है कि इसकी जिन्दगी बरबाद हो
जाएगी; और मुझे इसका पालन-पोषण करना पडेगा, इस भय से अपने प्रिय पुत्र को
भी बात-बात में ताना मारा जाता है। क्या ऐसा विचार आपको तत्त्वज्ञान-रहित पुत्र के
विषय में भी आता है?
संतान की व्यावहारिक जिम्मेदारी तो आप समझते हैं, परन्तु
धार्मिक जिम्मेदारी नहीं समझते हैं तो क्या कहना चाहिए? जो
भगवान को, गुरु को और भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को नहीं मानते, उनकी
बात अलग है; ऐसे लोग अपने और अपनी संतान के परलोक सम्बन्धी हित की चिन्ता न करें तो कोई
अचरज की बात नहीं है,
परन्तु आप तो शुद्ध देवादि को मानने का दावा करते हैं, फिर
भी आपका पुत्र देव-गुरु-धर्म के स्वरूप के विषय में अज्ञानी रहे, इसकी
आपको चिन्ता न हो तो आप में धर्म आया है, यह कैसे माना जाए?
कतिपय गांव ऐसे थे,
जहां अंग्रेजी भाषा की शिक्षा और व्यावहारिक शिक्षा की
सरकारी व्यवस्था नहीं थी,
तो ग्रामवासियों ने पैसे एकत्रित कर वैसी व्यवस्था खडी की।
गांव की स्थिति यदि कमजोर थी तो बाहर से भी पैसे एकत्रित करके वैसी व्यवस्था की।
क्योंकि, उसकी आवश्यकता महसूस हो गई! इसके बिना चल नहीं सकता, ऐसा
माना गया। वैसे ही यदि लडका 20 वर्ष का हो गया, फिर
भी उसे प्रतिक्रमणादि न आए तो क्या आपको उसका दुःख होता है?
कुटुम्ब में स्त्रियों को रसोई बनाना न आए तो खटकने लायक बात होती है, परन्तु
धर्म न आए तो क्या आपको खटकता है? यदि लडका व्यवहार के विषय में होशियार न
हो तो कलेजा कांपता है,
परन्तु यदि वह धर्म के सामने भी नहीं देखता हो, तो
अधिक से अधिक ‘इसके कर्म भारी हैं’,
ऐसा कहकर ही संतोष कर लेते हैं न? मिथ्यात्व
एक रूप में नहीं,
अपितु अनेक रूप में नाचता है और नचवाता है। मिथ्यात्व हटे
और सम्यक्त्व प्रकटे तो अनेक गुण स्वयमेव प्रकट होने लगते हैं।
मिथ्यात्व को हटाने के लिए जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञाता बनने का
प्रयत्न करना चाहिए और जीवादि तत्त्वों के निश्चय के अभाव रूप, अनधिगम
रूप मिथ्यात्व को टालना चाहिए। धार्मिक अज्ञान खटकना ही चाहिए। ऐसे के ऐसे अज्ञानी
रहना और मिथ्यात्व टल जाएगा, ऐसा मानना योग्य नहीं है।-सूरिरामचन्द्र
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