‘समस्त विश्व का कल्याण हो’, इस पवित्र भावना के साथ ‘मेरे कारण किसी जीव का
अकल्याण न हो जाए’, ऐसी भावना रखते हुए सुसाधु धर्ममय
जीवन जीते हैं और आवश्यकतानुसार जगत के जीवों को कल्याण का मार्ग बतलाते हैं।
सुसाधु जगत के जीवों को ‘पाप छोडो और धर्म का सेवन करो’, यही उपदेश देते हैं, क्योंकि
पाप के त्याग बिना दुःख-मुक्ति नहीं और धर्म के आचरण बिना सुख-प्राप्ति नहीं। पाप
मात्र से अलिप्त रहने के लिए तथा धर्ममय जीवन जीने के लिए इन्द्रियों का निग्रह, संयम पालन, पाप-संग त्याग करना
पडेगा और वीतराग परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट क्रियाओं में अप्रमत्तभाव से रमण करना
पडेगा। संसार में सर्वश्रेष्ठ यही जीवन है। ऐसे त्याग और संयम में ही सच्ची गुरुता
रही हुई है। सच्ची गुरुता के अभाव में गुरु बनकर बैठे हुए न तो अपना कल्याण कर
सकते हैं और न ही दूसरों का। सिर्फ नाम से नहीं, गुणों
से गुरु बनो। गुरु बनने की इच्छा के बजाय साधुता पाने की इच्छा करो। भोग का त्याग
और संयम का सेवन, सिर्फ सिद्धान्त की तरह जानने की
वस्तु नहीं है, बल्कि उसका आचरण होना चाहिए।
आजकल लोगों को सुख चाहिए, किन्तु संयम पसंद नहीं है। ‘सच्चा
सुख कहां है और कैसे मिल सकता है’, यह सोचने के लिए फुर्सत
नहीं है। जिन प्रवृत्तियों से किसी को सुख नहीं मिला है, वे
प्रवृत्तियां गतानुगतिकता से हो रही हैं। ‘दूसरे
को भले ही दुःख हो, मुझे सुख मिलना चाहिए’, यह वृत्ति बढ रही है। अपने सुख के लिए हम दूसरों को
दुःखी करें तो हमें सुख मिलेगा या दुःख? यह भी विचार नहीं आता
है। सच्चे कल्याण साधक वे हैं, जो अपने सुख के लिए
दूसरों को दुःख नहीं देते हैं। पाप से बचने के लिए किसी महात्मा ने सुन्दर उपाय
बतलाया है-
‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।’
जो वर्तन अपनी आत्मा के लिए
प्रतिकूल हो, वह आचरण दूसरों के प्रति न करें।
अपने को कोई दुःख दे, यह हमें पसंद नहीं है तो हमें भी
किसी को दुःख नहीं देना चाहिए। कोई अपने साथ झूठ बोले तो हमें पसंद नहीं, अतः हमें भी झूठ नहीं बोलना चाहिए और चोरी नहीं करनी
चाहिए। इस प्रकार हर बात में समझ लें और विवेकी बनकर आचरण करेंगे तो सारा जीवन
सुधर जाएगा। जीवन में पाप दूर होगा और धर्म आएगा। धर्म के विषय में अनेक मतभेद हैं, किन्तु वास्तविक धर्म वही है जो आत्मा को समस्त
कर्मों से मुक्त कर आत्मा के निर्मल स्वरूप को प्राप्त कराए। आत्मा के मूल स्वरूप
को पाने के लिए ही धर्म करना चाहिए अर्थात् हिंसादि पापों का मन, वचन और काया से करने, कराने
और अनुमोदना करने का त्याग करना चाहिए। आत्मा को अनंतज्ञानी की आज्ञा के प्रति
समर्पित कर देना चाहिए। वीतराग परमात्मा की आज्ञा की आराधना में ही कल्याण है, इस बात को किसी को नहीं भूलना चाहिए, न साधु को और न ही श्रावकों को।-सूरिरामचन्द्र
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