आप जरा शान्त-चित्त से चिन्तन करके
देखिए, अपने आप से पूछिए कि ‘मैं कौन हूं, शरीर
या आत्मा?’ आप चिन्तन करेंगे तो पाएंगे कि ‘मैं शरीर नहीं, अपितु
आत्मा हूं।’ शरीर और आत्मा एक नहीं, बल्कि भिन्न हैं, इसी
कारण जो शरीर का सुख है,
वह आत्मा का सुख नहीं
है। शरीर के सुख में आत्मा को सुख हो, ऐसा नियम नहीं है। शरीर
के दुःख में भी आत्मा सुखी हो सकती है और शरीर के सुख में भी आत्मा दुःखी हो सकती
है। लेकिन, किसी भी अवस्था में आत्मा को दुःखी
नहीं करना चाहिए। आत्म-सुख के लिए शरीर का सुख छोडना पडे तो छोड देना, क्योंकि ‘मैं शरीर नहीं हूं।’ शरीर और आत्मा भिन्न हैं, मैं
शरीर नहीं, आत्मा हूं; इतना
भान आपको हो जाएगा तो आपकी कार्यशैली स्वतः बदल जाएगी।
‘मैं कहां से आया हूं?’ इसकी कल्पना अपनी वर्तमान स्थिति से कर सकते हैं। किसी भी गति से मैं आया, लेकिन इतना तो तय है कि पूर्व भव में कुछ पुण्य कर्म
करके आया हूं। इसीलिए मुझे यह श्रेष्ठ भव मिला है तथा अन्य जीवों की अपेक्षा
श्रेष्ठ सामग्री प्राप्त हुई है। ‘मेरा वर्तमान आचरण कैसा
है?’ अब यही देखना है, क्योंकि यहां से मरकर कहां जाना है, इसका आधार उसी पर है। सदगति में ही जाने की इच्छा
होने पर भी वर्तमान जीवन शैली के आधार पर ही वह स्थान निश्चित होने वाला है। इस
दृष्टि से आपका भविष्य आप के ही हाथों में है। आप जो प्रवृत्ति करते हैं, वह भविष्य का विचार करके करते हैं? इस सवाल पर विचार करते हुए आपको धैर्य के साथ चिन्तन
करना होगा।
सोचना होगा कि मैं जो भी प्रवृत्ति
कर रहा हूं, क्या भविष्य का विचार करके कर रहा
हूं? आत्मा की दृष्टि से भविष्य में
इसका अच्छा परिणाम आएगा या नहीं? यदि आपको यह समझ नहीं
आता तो ज्ञानियों से पूछकर अपनी प्रवृत्ति करें, क्योंकि
अब तक जो किया, वह तो भूतकाल हो गया, उसके भविष्य में जो परिणाम आने हैं, वे तो आएंगे ही, किन्तु
अब तो संभल जाऊं ताकि भविष्य सुधर सके, अब आगे का तो अपने हाथ
में है। वर्तमान काल हमारे भूतकाल की कार्यशैली का ही परिणाम है, इसका खयाल नहीं होने के कारण ही वर्तमान में शान्ति
नहीं है। लेकिन, भविष्य अपने हाथ में होने पर भी
गलत प्रवृत्ति कर अपने भविष्य को बिगाडना क्या समझदारी का लक्षण है? भविष्य का चिंतन करने वाले चक्रवर्ती सम्राट भी
राजपाट सब छोडकर साधु बन गए। एक क्षण में उन्होंने छः खण्ड की सुख-सामग्री छोड दी।
उन्होंने सोचा कि ‘इस सुख-समृद्धि में भविष्य का
विचार नहीं किया तो भविष्य खतरनाक है।’ कोई भी प्रवृत्ति करते
समय भविष्य का विचार करना तथा स्वयं को मालूम न पडे तो ज्ञानी को पूछकर प्रवृत्ति
करना, ये दो नियम जीवन सुधार के लिए
आवश्यक हैं।-सूरिरामचन्द्र
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