सभी धर्म शास्त्रों ने मनुष्य जन्म
की महत्ता गाई है। ‘मनुष्य जन्म श्रेष्ठ जन्म है’, यह सभी कहते हैं, परन्तु
इस जन्म की महत्ता किस कारण है, यह विचारणीय है। मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरक इन चार
गतियों में से केवल मनुष्य गति को ही सर्वाधिक उत्तम या श्रेष्ठ बताया गया है तो
यह इन्द्रियों के विषय-भोग की अपेक्षा से नहीं है, क्योंकि
मनुष्य लोक की अपेक्षा देवलोक में इन्द्रिय-सुखसामग्री बहुत ज्यादा है। देवलोक में
जिस शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की सामग्री का योग है, मनुष्य लोक में नहीं है। वहां अकल्प्य वैभव और
भोगोपभोग की विपुल सामग्री है। स्वच्छन्द आहार, विहार
और भय आदि तो मनुष्य में होते हैं, उसी तरह पशुओं में भी
होते हैं। नारक जीव केवल दुःखमय दशा का अनुभव करते हैं, इसलिए
उनकी बात करने का तो कोई अर्थ नहीं है।
मनुष्य लोक में देवलोक जैसी
भोग-सामग्री नहीं है, फिर भी मनुष्य भव श्रेष्ठ माना गया
है, इससे यह तो स्वतः सिद्ध हो जाता है
कि इन्द्रिय-सुख या भोग-सामग्री की अपेक्षा से मनुष्य जन्म की श्रेष्ठता नहीं है।
तो फिर मनुष्य जन्म की महत्ता किस कारण है? जिस
कारण से मनुष्य जन्म की महत्ता है, उस कारण को ही साधा जाए, तभी तो मनुष्य-जन्म की सफलता होगी। मनुष्य जन्म को
श्रेष्ठ बताने वाले उपकारी महापुरुष इस जन्म की उत्तमता बताते हुए मनुष्य जन्म को
सफल बनाने का मार्ग भी बतलाते हैं।
मनुष्य जन्म की महत्ता विवेक के
कारण है। तिर्यंचों में यह विवेक आना मुश्किल है। कदाचित् आ जाए तो भी मनुष्य
विवेक को जितना आचरण में ला सकता है, उतना तिर्यंच नहीं ला
सकता। देवताओं में भी उस प्रकार के त्याग का आचरण संभव नहीं है। मनुष्य ही आत्मा
और शरीर का विवेक कर सकता है। मनुष्य जड-चेतन के स्वरूप को समझ सकता है। आत्मा के
कल्याण-अकल्याण का विवेकपूर्वक विचार और आचरण मनुष्य ही कर सकता है। तिर्यंचों के
लिए विवेक का आचरण सर्वथा असंभव नहीं है, परन्तु जितना आचरण
मनुष्य कर सकता है, उतना तिर्यंच नहीं कर सकता है।
यद्यपि देव समझते हैं, किन्तु मनुष्य की तरह सम्पूर्ण
आचरण करने में वे असमर्थ हैं। मनुष्य समझ भी सकता है और आचरण भी कर सकता है।
जड-चेतन का जो वास्तविक स्वरूप है, उसे यथार्थ रूप से
समझना और चेतन को जड के संयोग से दूर करने का प्रयत्न करना, अपने आत्म-स्वरूप को प्रकट करना, कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर, जन्म-मरण
के चक्र से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाना, यह
सिर्फ मनुष्य जन्म में ही संभव है और ऐसा करने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
जो मनुष्य विवेक रहित होकर भोग में लीन बना रहता है, उसमें
और पशु में क्या भेद रहता है? -सूरिरामचन्द्र
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