वर्तमान समय में इस भरत क्षेत्र
में अनंतज्ञानी पुण्य पुरुष विद्यमान नहीं हैं, परन्तु
उन तारकों के द्वारा निर्दिष्ट पुण्य-पाप के स्वरूप को बतलाने वाले शास्त्र
विद्यमान हैं। उन शास्त्रों की आज्ञानुसार जीवन जीने के लिए प्रयत्न करना चाहिए और
उन शास्त्रों के मर्म को जानने वाले त्यागी पुरुषों की सेवा करनी चाहिए।
अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा को देव के रूप में, उन
तारकों की आज्ञानुसार जीवन जीने वाले संसार-त्यागी को गुरु के रूप में तथा उन
तारकों के द्वारा निर्दिष्ट धर्म को, धर्म मानकर, उनको स्वीकार कर, उनको
अंगीकार कर अन्य नामधारी-मिथ्यात्वी देव, गुरु और धर्म का त्याग
करना चाहिए।
इस प्रकार सुदेव-सुगुरु-सुधर्म को
अपना कर संसार-त्यागी गुरुओं की सेवामें रहते हुए धर्म साधने के लिए स्वयं भी
संसार-त्यागी बनकर हिंसा,
झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के
पापों का मन, वचन, काया
से सर्वथा त्याग करना चाहिए। ऐसे पाप दूसरों से भी नहीं कराने चाहिए और ऐसा पाप
करने वालों की अनुमोदना भी नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार संसार का त्याग कर आत्मा के
मूल और निर्मल स्वरूप को प्रकट कराने में सहायक अनुष्ठानों में गुरु एवं
शास्त्राज्ञानुसार जुट जाना चाहिए, ताकि आत्मा को आवृत्त करने वाले कर्मों का क्षय
किया जा सके और आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बनकर अविनाशी सुख और परम आनन्द को प्राप्त कर
सके।
यहां कई बार अपनी अल्प समझ के कारण
या भौतिकता की चकाचौंध में आसक्त लोग बहानेबाजी के रूप में अथवा तो कोई मिथ्यात्वी
हंसी उडाने के बहाने एक सवाल उठाते हैं कि ‘रोज-रोज
वैराग्य और साधु बनने का ही उपदेश दिया जाता है, सभी
साधु बन जाएंगे तो फिर क्या होगा?’ इसका जवाब यह है कि, ‘स्वयं परमात्मा की उपस्थिति में, उन तारकों का सतत उपदेश प्रवाहित होने पर भी किसी काल
में ऐसा हुआ नहीं है और भविष्य में भी कभी ऐसा होने वाला नहीं है, क्योंकि दुनिया के अनंत जीवों में से जो अल्प-संसारी
भाग्यशाली आत्मा होती है,
उसी को ही अनंतज्ञानी
परमात्मा का सच्चा और युक्तियुक्त उपदेश पसन्द आता है। हर किसी को धर्म नहीं
रुचता। पुण्यशाली आत्माओं को ही यह संयोग मिलता है।’
‘हीनभागी आत्माओं को तो ऐसी बातें सुनने को भी नहीं
मिलती है। कदाचित् सुनने को मिल जाए तो भी भारीकर्मिता के कारण वे बातें समझ में
नहीं आती, पसंद नहीं आती है। प्रभु के वचन
पसन्द आने के बाद भी जो भाग्यशाली, अल्पसंसारी और लघुकर्मी
आत्माएं होती हैं, वे ही आत्माएं भगवान की आज्ञानुसार
साधु बनकर, पाप का त्याग और धर्म का आचरण कर
सकती हैं। इस कारण सभी साधु बन जाएंगे तो फिर क्या होगा, यह
चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।’-सूरिरामचन्द्र
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