कर्म के अधीन सुख-दुःख को अवश्य ही
भोगना पडता है। सुख-दुःख कर्म के अधीन हैं और कर्म के नाश के बिना उनका नाश संभव
नहीं है। इस कारण कर्माधीन जीवों को यह अवश्य ही भोगने पडते हैं। जिस वस्तु
(कर्म-परिणाम) को भोगे बिना कोई चारा नहीं, कोई
रास्ता नहीं, कोई विकल्प नहीं, उसे भोगते हुए शोक किसलिए? खेद
करने से क्या होगा? रोने से क्या होगा? इससे तो और नए दुष्कर्मों का उपार्जन होगा। जब
कर्माधीन सुख-दुःख भोगने ही पडें वैसे हैं, तो
उन्हें इस प्रकार से क्यों न भोगे जाएं कि जिस रीति से उनको भोगते हुए आत्मा नवीन
दुष्कर्म का उपार्जन करने वाला नहीं बने और उदय में नहीं आए हुए ऐसे भी दूसरे बहुत
कर्मों की निर्जरा साधने वाली बने। दुःख आने वाला है, यह
बात निश्चित है। उसको भोगे बिना छुटकारा नहीं है। रोने से या माथा कूटने से कुछ
नहीं होना है। तो धीर और वीर बनकर समभावपूर्वक आए हुए दुःखों को सहन करने में
आपत्ति क्या है? इसमें लाभ है या नुकसान? एकान्ततः लाभ ही है।
आत्मा सच्चा धीर और वीर बनता है तो
उसका दुःख कुछ भी बिगाड नहीं सकता। आया हुआ दुःख उल्टा उपकारक बन जाता है। सोचो कि
भयंकर दुःख में भी सुन्दर भाव के योग से उत्पन्न होने वाला समाधि-सुख, यह कैसा अनुपम सुख है? यह
दशा तो वर्तमान में भी सुख देती है और भविष्य को भी सुखमय बना देती है। इसके
विपरीत, दुष्कर्म के उदय के समय व्यथित
होने वाले, अस्वस्थ बनने वाले, रोने वाले अथवा माथा कूटने वाले आदि तो, उदय में आए हुए दुष्कर्म को भोगने के साथ दूसरे अनेक
दुष्कर्मों को उपार्जित कर स्वयं के दुःख को बढा देते हैं। इससे नहीं तो वर्तमान
में शान्ति मिलपाती है और न भविष्य में शान्ति मिलना संभव है।
कर्मसत्ता की अधीनता से मुक्त
बनाने वाली धर्मसत्ता है। धर्मसत्ता की शरण में रहने वाली आत्माएं कर्मसत्ता से
सर्वथा मुक्त न बने, वहां तक भी समाधिमय मानसिक
स्वास्थ्य को सुन्दर प्रकार से भोग सकती हैं। विपत्ति के समय में दूसरे किसी की भी
शरण सफल नहीं होती है, केवल मात्र एक धर्म की शरण ही सही
राह दिखा सकती है। विपत्ति से उद्धार करने में वास्तविक प्रकार से कोई समर्थ है तो
वो केवल धर्म ही है और धर्म भी वह कि जो श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित है।
हम जैन हैं, इसलिए हम ऐसा कहते हैं, ऐसा नहीं है। जो वास्तविकता है, वही हम कहते हैं। सम्यक्त्व अर्थात् क्या है? जो जैसा है, उसको वैसा ही मानना।
चेतन और जड का जो वास्तविक स्वरूप है, उसी स्वरूप को मानना और
उससे विपरीत स्वरूप को मिथ्या मानना। हेय को हेय और उपादेय को उपादेय मानना, यही सम्यक्त्व है। श्री जिनोक्त तत्त्वों में रूचि को
ही सम्यक्त्व कहते हैं। श्री जिनेश्वरदेवों ने तत्त्वों का स्वरूप जैसा है, वैसा ही फरमाया है, इसलिए
वही सच्चा धर्म है और वही विपत्ति से उद्धार करने वाला है।-सूरिरामचन्द्र
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