आज आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं
है। इसी कारण मनुष्य, मनुष्य न रहकर पशु बन गया है। अपनी
बढी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रास्ते में आने वाले बाधक तत्त्वों को
फेंकदेने, मिटादेने की वृत्ति फैल रही है।
समर्थ न हो तो दबकर रहेगा,
लेकिन वृत्ति तो यही
रहती है। ऐसी दशा में भी यह आदर्श आँखों के सामने आ जाए कि ‘किसी का सुख छीनकर मुझे अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं करना
है’, तो अवश्य फर्क पडेगा। मुझे किसी का
बाधक नहीं बनना है, यह वृत्ति और ऐसी प्रबल भावना
प्रकट हो जाए तो मानव के जीवन में बडा परिवर्तन आए बिना नहीं रह सकता।
यहां यह सवाल सहज ही उठ सकता है कि
‘मैं किसी का बाधक न बनूं, पर
कोई मेरा बाधक बन जाए तो मुझे क्या करना चाहिए?’ इसका सीधा जवाब यही है कि आप अधिक विवेकी हैं, इसलिए
आपको सहन कर लेना चाहिए। दूसरा अपना बाधक बने तो भी हमें उसका बाधक नहीं बनना
चाहिए। बल्कि उसके अज्ञान को समझ कर, उस पर दया कर के, उसे
भी सीधे रास्ते पर लाने की कोशिश करनी चाहिए। यही आदर्श प्रत्येक मनुष्य का होना
चाहिए, भले ही इसका अमल पूर्ण रूप से न हो
सके, पर फिर भी यह आदर्श निश्चित हो
जाना चाहिए। इस आदर्श का जितना अमल होगा, जीवन में उतना ही लाभ
होगा। यह स्वाभाविक है कि सबसे इस आदर्श का पूर्णतया पालन संभव नहीं है, पर इसे जीवन का आदर्श बना लेने पर परिवर्तन आए बिना
नहीं रहता, यह भी निश्चित है।
मुझे किसी का बाधक नहीं बनना चाहिए, ऐसी भावना आने के बाद आत्मा धर्म के बिना एक क्षण भी
नहीं रह सकती और कोई मेरा बाधक बने तब भी मुझे उसके विरूद्ध नहीं होना है, ऐसी उमदा वृत्ति का प्रादुर्भाव धर्म के कारण हुए
बिना नहीं रहता।
‘मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ है’, यह बात दार्शनिक मानते हैं और जडवादी भी मानते हैं।
मनुष्यों में भी जो ज्ञानी हैं, वह अन्यों से महान हैं
और ज्ञानियों में भी जो विवेकयुक्त हैं, वे उनसे महान हैं। अब
सोचिए कि महान को महान कब कहा जाएगा? जो नीच व्यक्ति के
द्वारा किए गए अपने प्रति खराब व्यवहार को माफ कर दे, वही
महान कहा जाएगा। अज्ञानी,
ज्ञानी को गाली दे और
उसके बदले में ज्ञानी भी अज्ञानी को गाली दे तो आप उसे क्या कहेंगे? दोनों एक जैसे हैं! आपको लगना चाहिए कि मुझे प्राप्त
होने वाली प्रतिकूलता किसी न किसी तरह मेरे ही किसी कृत्य का फल है, चाहे वह कृत्य इस जन्म का हो या पिछले जन्म का। इसलिए
अब किसी भी हालत में दुष्कृत्य नहीं करना है। पिछले जन्मों के कृत्यों के आधार पर
भाग्य का निर्माण हुआ है और उसी के अनुरूप अनुकूलताएं या प्रतिकूलताएं मिलती हैं, यह सिद्धान्त याद रखने योग्य है। भाग्य के साथ इस
जन्म का पुरुषार्थ आदि अन्य चीजों की भी जरूरत पडती है, लेकिन
भाग्य तो परमावश्यक है। इसके अभाव में प्राप्त वस्तुएं भी हाथ से निकल जाती हैं।
ऐसी परिस्थिति में भी क्रोध का जन्म न हो, यह
तभी संभव है कि जब उपर्युक्त सिद्धान्त हृदय में बैठ जाए।-सूरिरामचन्द्र
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