आर्यों में भी जो उत्तम कोटि के
आर्य हैं, उन्होंने पर स्त्री के सामने विकार
भरी दृष्टि डालने को भी व्यभिचार माना है। इस बात को लेकर जैन शासन के महापुरुष तो
यहां तक फरमाते हैं कि पर-भाव में ममत्व की बुद्धि भी एक प्रकार का आत्मा का
व्यभिचार है।
‘पर’ अर्थात्? शरीर से लेकर यह समस्त जगत हम से ‘पर’ (भिन्न) है। जिसे हम ‘मेरा शरीर’ कहते हैं, वह भी वास्तव में अपना नहीं है। अनादिकाल से जिसका ‘अस्तित्व’ है और जो भिन्न-भिन्न
शरीर में रही है, ऐसी आत्मा ही ‘मैं’ हूं। ‘मैं’ अर्थात् शरीर नहीं, अपितु शरीर में रही आत्मा। उस आत्मा के स्वयं के
गुणों के सिवाय, मेरा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार का
भान हमें यह जैन शासन प्रारम्भ से ही कराता है।
आत्मा के गुणों को छोडकर मेरा कुछ
भी नहीं है और फिर भी इस शरीर आदि में हमें ‘ममत्व’ बुद्धि है। शरीर आदि में ममत्व बुद्धि, यह आत्मा का अनादिकालीन व्यभिचारी स्वभाव है। जब तक
शरीर आदि के ऊपर से ममत्व बुद्धि दूर नहीं होगी, तब
तक आत्मा का अनादिकालीन व्यभिचारी स्वभाव दूर नहीं हुआ है, यह
मानना ही पडेगा।
मनुष्य जन्म को सफल बनाना हो तो उस
व्यभिचारी स्वभाव को छोडना ही होगा। जब तक शरीर आदि के विषय में ममत्व बुद्धि दूर
नहीं होगी और जब-जब भी ममत्व बुद्धि हो जाए, तब-तब खयाल आते ही उससे रुकें
नहीं.... आकुल-व्याकुल न हों, तब तक अनंतज्ञानी आदि
तारकों ने रत्नत्रयी के भाजन रूप मनुष्य जन्म की जो पहिचान कराई है, उसे हम पढें-सुनें तो भी यह बात हृदय में स्थिर नहीं
होगी। जैन कुल में तो यह शिक्षण बचपन से ही मिलना चाहिए। शरीर और अन्य पदार्थों के
प्रति ममत्व बुद्धि हो जाए तो उसका खयाल आते ही कंपन का अनुभव हो, ऐसे जैन कितने?
शरीर और अन्य पदार्थों के प्रति
ममत्व बुद्धि का सर्वथा अभाव हो, यह स्थिति अभी दूर है।
क्योंकि उसके लिए तो अत्यधिक सामर्थ्य चाहिए। परन्तु हृदय से मूल सिद्धान्त की
रुचि पैदा हुए बिना शरीर आदि के प्रति रही ममत्व बुद्धि का हृदय में डंक भी कहां
से रहेगा? अनादिकालीन अभ्यास आदि के कारण
समझदार आत्माओं में भी कभी-कभी शरीर आदि के प्रति ममत्वभाव हो जाए, यह भी कोई असंभव बात नहीं है। परन्तु महत्त्वपूर्ण
बात यह है कि ममत्व भाव आ जाए तो वह हृदय में खटकता है या नहीं? उसे मूल में से निकालने का मन होता है या नहीं? मनुष्य जन्म, एक
मात्र रत्नत्रयी का ही भाजन है, यह बात हृदय में बराबर
जच जाए तो ही शरीर आदि के प्रति रहा ममत्व भाव हृदय में कांटे की भाँति डंक देगा
और उस ममत्व भाव से सर्वर्था मुक्त बनने का प्रयत्न होगा।-सूरिरामचन्द्र
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