शरीर की गंदगी को सभी देखते हैं, परन्तु भीतर की गंदगी तो हम स्वयं या ज्ञानी ही देख
सकते हैं। ‘मैं भीतर से कैसा हूं?’ यह देखने की आपको फुर्सत है? बाहर
का गुनाह बडा या भीतर का?
बाहर से साहूकार दिखने
वाले और भीतर से गुनहगार,
मरकर अच्छे स्थान में
जाएंगे, ऐसा कौन कह सकता है? कोई आदमी बाहर से बुरा काम करेगा तो उसे खराब कहने
वाले बहुत मिल जाएंगे, परन्तु भीतर से खराब है और अच्छा
दिखाने का दंभ करता है, ऐसे व्यक्ति का उद्धार असंभव है।
अन्तर में अत्यधिक मलीनता और उसे छुपाने के लिए इतना अधिक दंभ क्यों? इस जिन्दगी में अपने को अच्छा दिखाने के लिए न? जिन्दगी पूरी हो जाने वाली है, इसमें कोई शंका नहीं है। इस जिंदगी में जितना बुरा
करोगे, उसका बुरा फल भी भुगतना पडेगा, यह भी निश्चित है। अतः अन्तर का मेल दूर करने का
प्रयत्न करो। बाहर से नहीं,
अपितु मन से शुद्ध बनो।
जिसका मन मलीन नहीं है, वह बाहर से मलीन होगा तो भी उसका
कल्याण हो जाएगा, परन्तु जिसका मन मेला है, वह बाहर से स्वच्छ होगा तो भी उसका कल्याण होने वाला
नहीं है।
‘पाप का फल अवश्य भुगतना पडेगा’, यह बात जच जाए तो पाप का डर पैदा हुए बिना नहीं
रहेगा। सेठ नौकर को तथा बलवान कमजोर को परेशान करता है। भले ही सेठ के सामने नौकर
व बलवान के सामने कमजोर कुछ नहीं कर पाता है, परन्तु
उसके मन में तो यह विचार आता ही है कि ‘इनका कभी भला नहीं होगा’। कदाचित् पाप के फल से आप यहां बच जाओगे, परन्तु उसका फल कहीं तो भुगतना ही पडेगा। उस समय आप
यह क्यों नहीं सोचते हो कि ‘यदि मैं किसी के दुःख
में भागीदार बनूंगा तो इसका बदला मुझे भविष्य में अवश्य मिलेगा’। यदि इतना भी खयाल आ जाए कि स्वार्थ के लिए हिंसा, झूठ, चोरी करना, लोभ के अधीन होकर बुरे काम करना, इन सबका फल अवश्य मिलने वाला है, तो फिर पाप का डर पैदा हुए बिना नहीं रहेगा।
भौतिक सुख में पागल व्यक्ति को आज
पाप का डर नहीं है, परन्तु लोगों का डर है। सत्य तो यह
है कि जो इंसान पाप से नहीं डरता, वह इंसान, इंसान नहीं है। जिसे पाप का भय
नहीं, वह धर्म पाने के लिए योग्य नहीं।
जिसे पाप का भय नहीं, वह व्यक्ति संत-महापुरुषों का
सानिध्य पाने के लिए भी योग्य नहीं है। निष्पाप और धर्ममय जीवन जीने के लिए पाप का
भय तो प्राथमिक आवश्यकता है। पाप का भय बहुत बडा गुण है। जिसे पाप का भय है, वह व्यक्ति स्वतः अच्छा बन जाता है। ऐसे व्यक्ति को
पाप करने का प्रसंग आएगा तो पहले तो वह बुरा काम करेगा ही नहीं, कदाचित् करना पडा तो थोडा करेगा और वह भी दुःखी हृदय
से और करने के बाद भी वह पश्चाताप करेगा, जिससे उसके पाप की
निर्जरा होगी और वह पाप से निवृत हो जाएगा।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें