मन-शुद्धि
और मन की शान्ति तभी आ सकती है, जब आत्मा में भविष्य के लिए चिन्ता
जागृत हो और विवेक पूर्वक आगे-पीछे का हम विचार कर सकें। जीवन को सार्थक करने के
लिए हमें अपने मन में उठने वाली अनुचित एवं नकारात्मक, विनाशक
तरंगों, इच्छाओं और अनुचित तृष्णाओं को दबा देना चाहिए।
विषय-वासनाओं में लीन पांचों इन्द्रियों पर अंकुश लगाना चाहिए और उनके कारण जो पाप
हो रहा है, उससे बचकर इस जीवन को सुन्दर बनाना चाहिए। ऐसा करने
से आप झूठ, चोरी, अनाचार और लोभ के वशीभूत होकर किसी
भी प्राणी को दुःखी करना नहीं चाहेंगे और इस प्रकार की उत्तम नीति यदि जीवन में
उतारोगे तो इस लोक में उच्च कोटि की उत्तम आत्म-शान्ति अनुभव करते हुए, जहां
जाओगे वहां भी अनुकूल स्थिति और सामग्री प्राप्त करके, उन्नतगामी
बनकर आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर जैसा सुख चाहते हो
वैसा प्राप्त कर सकोगे। उस सुख को प्राप्त करने की स्थिति में आप पहुंच सकें, तभी
आपका जीवन सार्थक होगा।
हमें
मन की इच्छा के आधीन नहीं होना है, अपितु उसे अपनी इच्छा के आधीन
बनाना है। मन जो कुछ मांगे, वह उसे नहीं देना है, बल्कि
हम जो उसे देना चाहें, वही उसे देना है। मन पर अंकुश रखने के लिए उसे तृष्णा
से सदा दूर रखना चाहिए। जो-जो बुरी इच्छाएं हैं, उन्हें
पूरी नहीं करना चाहिए और अच्छी इच्छाओं को पूरा करने का प्रबल पयत्न करना चाहिए।
केवल साधुओं को ही नहीं, गृहस्थियों को भी सुखी होना हो तो
उन्हें अपने मन पर अंकुश रखना चाहिए। मन और इन्द्रियों को नहीं साधा तो चौरासी लाख
जीव-योनियों में ही भटकते रहना पडेगा। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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