रविवार, 29 सितंबर 2013

तीर्थंकर चरित्रों के अध्ययन से लाभ


सुन्दर प्रकार से भगवान के चरित्रों का अध्ययन करने से भगवान के प्रति हमारे हृदय में सम्मान बढता ही जाता है और सम्मान बढने से सम्यग्दर्शन आदि गुणों का हम में प्रवेश होता चला जाता है और वे गुण निर्मल भी होते जाते हैं, जिससे भगवान की आज्ञा का स्वरूप जानने की भी हमारी जिज्ञासा बलवती होती जाती है और उनकी आज्ञा का अनुकरण-अनुसरण करने की भी हमारी उत्कट अभिलाषा होती है। ऐसे चरित्रों के नियमित अध्ययन का जीवन पर सर्वांग रूप से असर पडता है।

भगवान के चरित्रों के सुन्दर अध्ययन से अनेक दोष नष्ट होते हैं और अनेक गुण प्राप्त होते हैं; उससे सुन्दर रीति से जीवन जीना और सुन्दर रीति से मरना भी आता है; उससे सुख-दुःख में जीवन यापन कैसे करना, यह भी समझ में आ जाता है। कर्म तो भगवान को भी भुगतने ही पडे हैं। भगवान श्री महावीर परमात्मा को अंतिम भव में भी अपने शुभ-अशुभ कर्मों को भुगतना ही पडा है। उन तारणहार परमात्मा ने उन कर्मों को कैसे भुगता? उन्होंने शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों को समाधिपूर्वक ही भुगते थे। सुख-दायक कर्मों को विरक्ति से भुगतना और दुःखदायक कर्मों को हर्ष पूर्वक भुगतना चाहिए। वे तो केवल पाप की ओर ले जाने वाले कर्मों से ही सचेत रहते हैं। यह सब सीखने योग्य है। यह सब तभी सीखा-समझा और हृदयंगम किया जा सकता है, जब हम नियमित रूप से ऐसे परमात्माओं के चारित्र का अध्ययन-स्वाध्याय करें।

श्री जिनेश्वर भगवानों की आत्माएं परार्थ व्यसनी होती हैं और उनमें ऐसे विशेष गुण योग्यता के रूप में अनादिकाल से होते हैं। सामग्री का सुयोग मिलते ही उन तारणहारों की आत्माओं में वे गुण उत्पन्न हो ही जाते हैं। मिथ्यात्व के योग की दशा में भी उन तारणहारों की आत्माएं परार्थ-व्यसनी आदि होती हैं। फिर भी हमारे यहां तो श्री जिनेश्वर भगवानों के चारित्रों का वर्णन, उन तारणहारों की आत्माएं जिस भव में सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त करती हैं, उस भव से आरम्भ किया जाता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के सुयोग से ही वे गुण-प्रभावोत्पादक सिद्ध होते हैं।

भगवान श्री जिनेश्वरदेवों की आत्माएं प्रथम बार ही जिस सम्यग्दर्शन को प्राप्त करती हैं, वह सम्यग्दर्शन भी उन तारणहारों की आत्माओं को तीर्थंकरत्व प्रदान करने वाला उत्तम कोटि का होता है; और इसी कारण उन तारणहारों के प्रथम सम्यग्दर्शन को भी वर-बोधिके रूप में पहचाना जाता है। भगवान श्री महावीर परमात्मा को श्री नयसार के भव में ही प्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई थी। मिथ्यात्व के उदय की अवस्था में उनमें परोपकार करने की रुचि थी और उस गुण से ही उन्हें सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सका था। भगवानों के चरित्रों का यदि सुन्दर रीति से अध्ययन किया जाए तो हम में भी वे सब गुण आ सकते हैं और विकसित हो सकते हैं। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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