रविवार, 22 सितंबर 2013

परोपकार का परम भाव


हम अपने आपको किसके अनुयायी मानते हैं? हम तो भगवान श्री जिनेश्वर देवों के ही अनुयायी हैं न? श्री जिनेश्वर भगवानों के अनुयायियों में परोपकार-भाव तो होता ही है। हम जिन तारणहारों के अनुयायी हैं, वे कैसे हैं? वे तो परम परोपकारी हैं। उन तारणहार परमात्माओं की आत्मा, अपने अंतिम भव से पूर्व तीसरे भव में कैसी उत्तम भावना में रमण करते हुए श्री तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना करती है? उस भावना में मुख्यतया प्रबल परोपकार-भाव ही होता है। उन तारणहारों के अन्तःकरण में यही भाव होता है कि समस्त विश्व के प्राणी सर्वथा दुःख रहित हों और वे शाश्वत सुख के भोक्ता बनें तो उत्तम हो।साथ ही उनके हृदय में यह भी आता है कि मैं सम्पूर्ण विश्व के प्राणियों को दुःखों से सर्वथा मुक्त कर दूं और उन्हें सम्पूर्ण कोटि के सुख के भोक्ता बना डालूं।

सब सुखी हों तो उत्तम’, इतना ही नहीं, अपितु मैं सबको सुखी कर दूं।परदुःख कातरता के बिना ऐसा भाव क्या संभव है? परोपकार का कितना प्रबल भाव उनमें सन्निहित होता है? लेकिन, यह परम परोपकार कब संभव है? वे तारणहार जानते हैं कि जब तक संसार के समस्त जीव स्वयं जिन-शासन-रसिक न बनें, तब तक उनके लिए दुःख से सर्वथा मुक्त होना और सम्पूर्ण कोटि के शाश्वत सुख, अक्षय सुख के भोक्ता होना संभव ही नहीं है। इसी कारणवश उन तारणहारों के हृदय में यह कामना भी उठती है कि यदि मुझ में ऐसी कोई शक्ति उत्पन्न हो जाए तो अखिल ब्रह्माण्ड के जीवों को मैं जिन-शासन-रसिक बना दूं।

उन तारणहारों की यह भावना अत्यंत प्रबल होती है और उसी उत्कट भावना से उन तारणहारों की आराधना में इतनी प्रबलता, उत्कृष्टता, उच्चता हो जाती है कि उसके प्रताप से ही उन तारणहारों को तीर्थंकर नाम कर्म जैसे परम पुण्य कर्म की निकाचना हो जाती है। और इसी करुणा व परम परोपकार की भावना के कारण केवलज्ञान व तीर्थंकर पद की प्राप्ति के बाद प्रभु समस्त जीवों के कल्याण के लिए उपदेश फरमाते हैं। यह उपदेश किसी भी प्रकार के राग-द्वेष से रहित होकर, सर्व जीवों के लिए कल्याणकारी भावना से ओतप्रोत होता है। ऐसी उत्कट अभिलाषा वाले श्री जिनेश्वर भगवान के हम अनुयायी हैं। ऐसे परम परोपकार रसिक भगवान के अनुयायियों में परोपकार की भावना तो होगी ही न? हम परोपकार कितना कर सकते हैं, यह भिन्न बात है, पर हमारे अन्तःकरण में परोपकार की भावना ही नहीं हो, यह तो हो ही नहीं सकता है, क्योंकि हमारा दावा है कि हम परम परोपकारी परमात्मा के अनुयायी हैं। यही नहीं, जिन तारणहारों के हम अनुयायी हैं, उनके समान बनने की हमारे अन्तःकरण में अभिलाषा प्रकट होनी चाहिए और फिर ऐसी अभिलाषा के अनुरूप हमारा पुरुषार्थ प्रारम्भ होना चाहिए, तभी जीवन की सार्थकता है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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