सोमवार, 23 सितंबर 2013

जैनत्व को लज्जित करने वाला अज्ञान


जिन तारणहारों के हम अनुयायी हैं, उनके समान बनने की हमारे अन्तःकरण में अभिलाषा है या नहीं? हम जिनका अनुकरण करते हैं, उनके समान बनने की हृदय में तमन्ना तो होती है न? इसलिए वे ऐसे महान कैसे बने, यह ज्ञात करने का भी हम प्रयत्न करते हैं न? उनके जैसा बनने की इच्छा न भी हो, तब भी हम जैन कुल में जन्में हैं और जैन कुल जिन महापुरुषों के कारण गौरवान्वित हैं, हमें उन भगवान श्री जिनेश्वरदेवों के जीवन-चरित्रों से सम्पूर्णतया परिचित होना ही चाहिए न? अन्यथा हमें जैन कहलाने का भी क्या हक है? तो हम इस अवसर्पिणीकाल में हुए भगवान श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों के जीवन-चरित्रों से तो परिचित होंगे न? खासकर वर्तमान शासन के संस्थापक भगवान श्री महावीर परमात्मा के चारित्र से तो हम अच्छी तरह सुपरिचित होंगे ही न?

ऐसे सवालों के समय जब आप मौन की स्थिति में रहते हैं तो क्या यह स्थिति श्री जिनेश्वरदेवों के अनुयायियों के लिए शोभनीय है? स्वयं का श्री जिनेश्वरदेवों के अनुयायी के रूप में परिचय देने वालों को उनके चरित्रों का भी ज्ञान न हो तो हमारे लिए लज्जा की बात तो है ही। जैनसे तात्पर्य ही यह है कि श्री जिनेश्वरदेवों के अनुयायी। चाहे जैन कुल में उत्पन्न होने के कारण ही आप जैन कहलाते हों, पर जैन कहलाना तो आपको अच्छा लगता है न? जैन कहलाना अच्छा लगता हो तो ही पुण्य के प्रभाव से जैन कुल में उत्पन्न होने की आप अनुमोदना करेंगे।

भगवान श्री जिनेश्वरदेवों के सच्चे अनुयायी होने में सहायक होने वाली जो सामग्री आपको अपने पुण्योदय से प्राप्त हुई है, उसका आपके अन्तःकरण में हर्ष है क्या? क्या आप इस प्राप्त सामग्री के योग को सफल करना चाहते हैं? अथवा आपका अन्तःकरण विषय-जनित एवं कषाय-जनित सुख की सामग्री को ही प्राप्त करने और उसकी सुरक्षा करने में तल्लीन है? यदि विषय-जनित एवं कषाय-जनित सुख की सामग्री प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने में आपका मन लीन होगा तो तो आपको जैन कुल आदि जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसकी आप उपेक्षा ही करते होंगे। आपके हृदय में उसका मूल्य ही नहीं होगा। आप ऐसे हैं अथवा नहीं, इसका निर्णय तो आप ही को करना है। परन्तु, जैन कहलाने वालों में तो आज ऐसे महानुभव अनेक हैं। इस कारण से जैन शासन की जो समृद्धि होनी चाहिए, वह आज दृष्टिगोचर नहीं होती। भगवान श्री जिनेश्वरदेवों के अनुयायियों में जो गुण होने चाहिए, वे गुण यदि अधिकांश जैनियों में विद्यमान हों, यदि श्री चतुर्विध संघ में वे गुण सम्पूर्णतया विकसित रूप में विद्यमान हों, तो तो श्री जैनशासन जाज्वल्यमान लगे बिना रहेगा ही नहीं। उन गुणों को स्वयं में लाने के लिए भगवान के चरित्रों का सुन्दर अध्ययन आवश्यक है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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