रविवार, 15 सितंबर 2013

धर्म पर विपत्ति के समय कर्तव्य


कलिकालसर्वज्ञ, भगवान श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज फरमाते हैं कि- धर्म के नाश के समय, उत्तम क्रिया का लोप हो रहा हो या होने की संभावना लगती हो उस समय और स्व-सिद्धान्त यानी कि कोई गलत अर्थ अथवा अपना अर्थ थोपकर श्री जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त के अर्थ का अनर्थ करता हो, गलत व्याख्या करता हो; तब उसे रोकने के लिए बिना पूछे भी समर्थ आत्मा को अवश्य बोलना चाहिए।

ऐसे समय बनावटी, दिखावटी और नाशक शान्ति के जाप नहीं जपे जाते। खोटी शान्ति और समता के पाठ पढकर तो वस्तु को गुमा देंगे। ऐसी खोटी समता-शान्ति का पाठ पढाने वाले कोई गुरु हों तो वे सुगुरु नहीं हैं। सन्मार्ग का लोप होता हो, तब श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा जैसे भी फरमाते हैं कि सामर्थ्यवान आत्मा बिना पूछे भी ऐसी प्रवृत्ति का निषेध करती है, विरोध करती है। जो करेगा वो भरेगा’, तो आप क्या करोगे?

ऐसे प्रसंग के समय घर के कोने में दुबकने की बजाय मर-खपजाना श्रेयस्कर है। शासन की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। ज्ञानी फरमाते हैं कि सत्य का अनुरागी उत्तम क्रियाओं के लोप के समय गूंगा बनकर नहीं रहता है। जो शक्ति होते हुए भी मूक बनकर रहे, उसकी परिणाम स्वरूप आस्तिकता चली जाती है और उसमें नास्तिकता आ जाती है। आपकी सामर्थ्य न हो तो आपकी भावना और चिन्तन तो यही होना चाहिए कि कोई सामर्थ्यवान जागे, कोई उन्मार्गियों को रोके। और कोई जागे तो आपको खुश होना चाहिए। ऐसा कोई जागे तो अच्छा’, ऐसा हृदय में बार-बार होना चाहिए। सच्चा सन्मार्ग प्रेम तो यही है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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