जिसके प्रताप से आत्मा मोक्ष-मार्ग
के प्रति शिथिल प्रयत्न वाला हो जाता है,
उसी का नाम प्रमाद है और
यह प्रमाद श्री तीर्थंकर भगवान ने आठ प्रकार का कहा है-
1. अज्ञान अर्थात् मूढता।
2. संशय अर्थात् क्या यह वस्तु ऐसी
होगी अथवा अन्यथा, इस प्रकार का संदेह।
3. मिथ्याज्ञान अर्थात् वस्तु जिस
स्वरूप में हो, उस रूप में स्वीकार नहीं करते
हुए गलत रूप में स्वीकार करना।
4. राग अर्थात् आत्मा, आत्मा के गुण और उसके विकास के साधनों के अतिरिक्त जो-जो पदार्थ
हैं उन पर ममत्व-भरा अत्यन्त प्रेम।
5. द्वेष अर्थात् अप्रीति।
6. स्मृति-भ्रंश अर्थात् विस्मरणशीलता।
7. धर्म में अनादर अर्थात् श्री अरिहंत
परमात्मा द्वारा अर्पित धर्म के आराधन में उद्यम न करना।
8. योगों का दुष्प्रणिधान अर्थात्
मन-वचन-काया इन तीनों योगों की दुष्टता करनी।
यह आठ प्रकार का प्रमाद कर्म-बंध
का हेतु होने से त्यागने योग्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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