मंगलवार, 10 सितंबर 2013

जगत और जैन


कर्म हरे, वह हरि। दुःख हरे, वह हरि नहीं। दुःख हरने की बात स्वार्थ से पैदा हुई है। कर्म हरने की बात परमार्थ से पैदा हुई है। ऐसा अर्थ जैनेत्तर को समझाने पर यदि वह योग्य है तो खुश-खुश हो उठता है। इस संसार में सुख एक ऐसा पदार्थ है, जो सब जीवों को अच्छा लगता है और फिर विचित्रता यह है कि यह सुख ही जीव को दुःख दिलवाता है। जगत को सुखमय संसार पाने की आदत है और जैन को सुखमय संसार छोडने की आदत होती है। धर्म से मिलने वाली संसार की छोटी से छोटी चीज भी अच्छी या उपयोग करने योग्य जिसे न लगे, वह धर्मी और धर्म से प्राप्त वस्तुओं को भोगने में क्या दोष’, ऐसा जिसे लगे, वह मिथ्यादृष्टि। श्रीमन्तों की बात छोड दें, मध्यम वर्ग के लोग भी यदि अपने घरों से बेकार का कचरा निकाल फेंके, जरूरी वस्तुओं से ही जीने का संकल्प करें तो आज के बहुत से दुःख भाग जाएं। श्रीमन्ताई की हमारी व्याख्या अलग ही है। श्रीमन्ताई जिसके पीछे फिरे वह श्रीमन्त। श्रीमन्ताई के पीछे जो फिरे वह भिखारी। आज के वादों का सच्चा लक्षण ही कोई नहीं बतलाता और खूबी यह है कि वादों के अग्रगण्य सब पूँजीवादी ही हैं। स्वयं मौज उडाकर लोगों को वाद और वादों के चक्कर में डालते हैं। जब श्रीमन्त सच्चे अर्थों में श्रीमन्त थे, तब आज के एक भी वाद और वादे का जन्म ही नहीं हुआ था, सिवाय अध्यात्मवाद के। आज ज्ञाति-जाति और कुटुम्ब की सब अच्छी रीतियों का नाश कर दिया गया है और पापमय कानूनों का ढेर लगा दिया गया। परन्तु, यह मंच एक दिन टूट पडनेवाला है। आज की प्रगति भयानक अवगति का मूल है। इसे जितना जल्द समझ लें, उतना ठीक है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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