गुरुवार, 19 सितंबर 2013

चेपी रोग से सावधान!


तम्बोली की कतरनी (कैंची) चलती ही रहती है। पान खण्डित हुआ तो कतरनी चलाता ही रहता है। सडा हुआ भाग निकालता है, न निकाले तो सम्पूर्ण करण्डिया-टोकरा (पान रखने का स्थान) बिगाड देता है। सडे हुए भाग को दूर करना, उसके प्रति उसका द्वेष नहीं है। किन्तु सम्पूर्ण टोकरे को न बिगाडे, इसीलिए ही तम्बोली की कतरनी चलती रहती है। पान खिलाने वाला सामग्री कितनी रखता है? कत्था, चूना, जिनतान की गोली सब रखता है। पान की पेटी होती है, किन्तु कतरनी पहले। तम्बोली को तो कतरनी के बिना चलता ही नहीं है।

इसी प्रकार शास्त्रकारों ने कहा है कि श्रीसंघ को यदि स्वयं का बचाव करना हो तो निह्नवता, उन्मार्गगामिता आदि सडे भाग पर कतरनी चलानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो आगम का और धर्म का कितना नाश होगा? एक सडा हुआ हजार को सडाता है। कारण कि यह चेपी रोग है। शास्त्रों में श्रीसंघ को सावचेत रहने की भलामण पूरी दी है। जितने अंश में इस भलामण का स्वीकार, उतने ही अंशों में कल्याण है।

सडा हुआ भाग दूर रखना, इसमें कोई वैरभाव नहीं है। वहां दुर्भावना नहीं है। किन्तु सडे हुए को साथ रखकर या उसके साथ रहकर सडने का या शक्ति के होते हुए भी उसका दुर्लक्ष्य करने का अथवा उसको बढने देने का शास्त्र मनाई करते हैं। दया का मतलब यह नहीं कि आत्मा का घात हो। किन्तु, दोषों को निभाने की भावना भी नहीं होनी चाहिए। यदि यह नियम नहीं रखेंगे तो अपना भी नाश होना सम्भव है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें